________________
__ ६ ] त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग १..
[ कारण, नीर्थ सबकं लिए समान होते हैं।] उसने महामुनिके चरणकमलोको कल्पवृक्ष के समान समझा और श्रानंदने बंदना की । ठीकहीं कहा गया है.- ..
....."मति: गत्यनुसारिणी ।" - [बुद्धि गतिके अनुसार होती है । ] महामुनिने गंभीरवाणीमें, लोगोंके लिए हितकारी और श्रानंदकारी धर्मदेशना दी।
(५४७-५५६) "कच्चं सूतसे बुने हुए पलंगपर सोनेवाला प्राणी जैसे जमीनपर गिरता है वैसेही विषयसेवन करनेवाला आदमी भी संसारमपी भूमिपर गिरता है। दुनिया में, पुत्र, मित्र और पत्नी श्रादिका स्नेह-समागम एक रात (किसी मुसाफिरखानेम) बिताने के लिए रहनेपर वहाँ मिलनेवाले मुसाफिरोंकासा है। चौरासीलाख जीव-योनिमं भटकनवाले जीवांपर नो अनंत दुःखका भार है वह अपने कमांकाही परिणाम है। . .
. .. (५५७-५८) नव हाथ जोड़कर निर्नामिकान सवाल किया, "हे भगवन् ! याप राजा और रंक दोनों में समान भाव रखनेवाले हैं। इसीलिए में पूछती हूँ। आपने कहा है कि संसार दुःखांका घर है; मगर मुझसे ज्यादा दुखीभी क्या कोई इस दुनियाम है ?” .
(५५६-५६०) "कवलीमगवानने कहा, "ह दुःखनी बाला ! है भनें! तुम क्या दुःव है ! नुमने बहुत ज्यादा दुःत्री जीव है, उनका हान मुन । 'जो जीप अपने बुर कमी के कारण नरकगतिम