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५.४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग १.
दुगंधके जैसी लगने लगी, पुत्र और श्री श्रादि शत्रुकी तरह
आँखाम खटकने लगे और सुंदर गायन गधे, ऊँट या गीदड़के स्वरकी तरह कर्णकटु लगने लगे। कहा है
"पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व प्रयाति विपरीतताम् ।"
[जब पुण्यका नाश हो जाता है, नव सभी चीजें विपरीतही मालूम होती हैं।] कुरुमनि और हरिश्चंद्र गुप्तरीतिसे जागकर परिणाम दुःखदायी; परन्तु थोड़ी देरकं लिए मुख देनवान्न विषयोपचार करने लगे। उसके शरीर में ऐसी जलन होने लगी मानों उसको अंगारे, चूम रहे हो। श्रतम वह दुखसे घबराया हुया गद्रध्यान में लीन होकर इस लोकसे चल बसा।
(४०८-४१७) उसका पुत्र हरिश्चंद्र पिताकी अग्निसंस्कारादि क्रिया करके राज्यगद्दीपर उठा । याचरगासे वह सदाचाररूपी माका मुसा. फिर. मालूम होता था। यह विधिवत-न्यायसे राज्य करने लगा। अपने पिताकी, पापीक फलसे हुई (दुग्न देनेवाली ) मौतको देखकर वह, धर्मकी स्तुति करने लगा। धर्म सब पुरुपायों में इसी तरह मुन्य है जिस तरह सूर्य ग्रहोम मुल्य है।
(४१८-४१६) मुवृद्धि नामका एक पात्रक उसका बालमित्र था। उसका हरिश्चंद्रने कहा, "तुम धर्मनानियांसे धर्म मुनकर, मुम कहा करो।" वृद्धि तत्परतासे उसके कथनानुसार करने लगा। कहा है.... अनुकूल निदेयो दि मनामुत्माहकारपणम् ।"