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१३. 1 त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग,
बरस बीत गया। नव वर्ष पुरा हुश्रा नब विधवत्सल ऋषम. स्वामीन ब्राझी और मुंदरीको बुलाकर कहा, "इस समय बाह्रवती अपने बहुत कमाको पाकर शुक्लपकी चौदसक्री तरह अंधकाररहित हुए हैं, परंतु परदे पीछे रग्बाहुआ पदार्थ जैसे दिन्लाई नहीं देना सही मोहनीय क्रर्मक ग्रंशप मानसं उसको कंवलदान नहीं हो रहा है। अब तुम दोनोंक वचन मुनकर वह अपना मान छोड़ दंगा, इमलिए तुम उपदेश देने के लिए उसके पास जाओ 1 उपदेश देनश्च यह योन्य समय है।"
(७ - २) प्रमुकी उस श्रानाको सरपर चढ़ा, उनके चरणोंम नमस्कार कर ब्राझी और मुंदरी बाहुवीके पास जानेको खाना हुई। महाप्रभु ऋषभदेवजी पहनही बाहुवतीक मानको जानते थे, दो भी एक परम नक उन्होंने उसकी उपेक्षा की थी । कारण
"अमृहलक्ष्या अतः समये युपदेशकाः ॥" [श्रन अमृद ( स्थिर.) लक्ष्यवान होते हैं, इसलिए वे समय पर ही अदश इत है। ] (७३-७-2)
श्राचा वासी और सुंदरी उन दशमें गई: मगर धूलिसे दुक हुए स्नत्री नरट्ट अनेक लजायोंमें वष्टिन ( लपेटे हुए) महामुनि उनको दिन्वाई नहीं दिए। बहुत इंढ-योन बाद श्राबाओंन तक समान बने हुए उन महात्माको किसी तरह पहचाना। बहुत ऋतुगमाय उनको अच्छी तरह जानकर दानों पायात्रान महामुनि बाहयतीको नीन प्रदक्षिणा देवंदना की और इस तरह कहा, हष्ट पार्य! अपने पिता भगवान नयमनन हमारे द्वारा श्रापको कहलाया.कि