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. . . श्री अजितनाथ-चरित्र
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राजा ! मैंने कमलनालकी तरह उसका दाहिना हाथ भी काट कर पृथ्वीपर पटक दिया। उसके बाद पेड़के तनेकी तरह उसका दूसरा पर भी तलवारसे छेदकर तुम्हारे सामने गिरा दिया। फिर उसके सर और धड़कोअलग अलग करके यहाँ डाल दिया। इस तरह भरत खंडकी तरह उसके छह खंड कर दिए । अपनी पुत्रीकी तरह मेरी स्त्रीरूपी धरोहरकी रक्षा करनेवाले आपही वास्तवमें उस शत्रुको मारनेवाले हैं; मैं तो केवल कारण हूँ।
आपकी सहायताके बिना वह शत्र मुझसे न मारा जाता। जलती हुई आग भी हवाकी मददके बिना घास नहीं जला सकती है। आज तक मैं स्त्री या नपुंसकके समान था । आज आपने मुझे शत्रुको मारनेका पौरुष दिया है। आपही मेरे पिता, माता, गुरु या देवता हैं। आपके समान उपकारी बननेके योग्य कोई दूसरा नहीं है। आपके समान उपकारी पुरुषोंके प्रभावहीसे विश्वको सूर्य प्रकाश देता है, चाँद प्रसन्न करता है, वो समय पर जल देती है, और भूमि दवाइयाँ उगाकर देती है; समुद्र 'अपनी मर्यादामें रहता है और पृथ्वी स्थिर रहती है । आप मेरी स्त्री-जिसे मैंने धरोहरकी तरह आपके पास रखा था-मुझे सौंपिए जिससे हे राजा ! मैं अपनी क्रीड़ा-भूमिको जाऊँ । शत्रुको मारकर निष्कंटक बना हुआ मैं, अब वैताब्य पर्वतपर
और जंबूद्वीपकी जगतीपरके जालकटकादिमें, आपकी कृपास प्रिया सहित आनंद करूँगा। (४६८-४६१)
राजा चिंता, लज्जा, निराशा और विस्मयसे आक्रांत हुआ और उससे कहने लगा, "हे भद्र ! तुम अपनी स्त्रीको धरोहरकी तरह रखकर गए; फिर हमने आकाश