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ws ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६.
सभासदोंने अचरजके साथ उसकी तरफ देखा वह कपटी विद्याघर राजाके पास गया और बोला, "हे परस्त्री और परधनकी इच्छा न रखनेवाले राजा ! तुम्हारी सद्भाग्यसे वृद्धि होती है। मैंने जुआरीकी तरह जैसे अपने शत्रुको जीता वह सुनाता हूँ; सुनिए। हे आश्रय लेने योग्य ! मैं अपनी स्त्रीको आपकी शरणमें रखकर जब आकाशमें, पत्रनकी तरह उड़ा, तब वहाँ मैंने अमिमानके साथ मेरे सामने आते हुए उस दुष्ट विद्याधरको, सर्पको जैसे नकुल देखता है वैसे देखा । फिर हम दोनों दुर्जय चलोंकी तरह गर्जना करने लगे और आपसमें एक दूसरेको लड़ाईके लिए ललकारने लगे,"अच्छा हुआ कि आज मैंने तुझे देखा है। हे भुजबलका गर्व करनेवाले ! तू पहले प्रहार कर कि जिससे मैं अपनीभुजाओंका और देवताओंका कौतुक पूर्ण करूँ। अन्यथा हथियार छोड़कर रंक जैसे भोजन ग्रहण करता है वैसे दसों उँगलियाँ दाँतोंके बीच में लेकर जीने की इच्छासे निःशक होकर चला जा।" इस तरह हम आपसमें कहते सुनते, ढालतलवाररूपी पंखोंको फैलात मुगाँकी तरह लड़ने लगे। चारीप्रचार' में चतुर रंगाचार्यकी' तरह हम एक दूसरेके प्रहारसे बचते हुए आकाशमें फिरने लगे। तलवाररूपी सींगोंसे मेंडोंकी तरह एक दूसरेपर प्रहार करते आगे बढ़ने और पीछे हटने लगे। क्षणभरमें हे राजा ! तुम्हें बधाई देनेवाला ही वैसे, मैंने उसका बायाँ हाथ काटकर यहाँ जमीनपर डाल दिया, उसके बाद आपको आनंदित करनेके लिए उसका एक पर केलेके खंभेकी तरह लीलासे काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया। फिर हे.
५-नृत्यमें कुछ चेशएँ। २-सूत्रधार ।