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. . .. श्री अजितनाथ-चरित्र । ६७३
त्रिपदीके आधारसे गणधरोंने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगीकी रचना की। फिर इंद्र अपनी जगह से उठ, चूर्णसे (यानी वासक्षेपसे) पूर्ण थालको ले, देवताओंके समूहके साथ, स्वामीके चरणकमलोंके पास आ खड़ा हुआ । जगतपति अजितनाथ स्वामीने खड़े होकर गणधरोंके मस्तकपर वासक्षेप डाला और अनुक्रमसे सूत्रसे, अर्थसे व उन दोनोंसे इसी तरह द्रन्यसे, गुणसे,पर्यायसे और नयसे अनुयोगकी अनुज्ञा तथा गणकी'. अनुज्ञा दी। उसके बाद देवोंने, मनुष्योंने और त्रियोंने दुंदुभि. की ध्वनिके साथ गणधरोंपर वासक्षेप डाला। फिर गणधर भी हाथ जोड़कर अमृतके निर्भरकी जैसी प्रभकी वाणी सुननेको तत्पर हुए । इसलिए पूर्वकी सरफ मुखवाले सिंहासनपर बैठकर प्रभुने उनको अनुशिष्टिमय देशना दी। प्रथम पौरुषी (पहर) के समाप्त होनेपर भगवानने धर्मदेशना पूरी की। उस समय सगेर राजाके द्वारा तैयार कराया हुआ और बड़े थाल में रखा हुआ चार प्रस्थ' प्रमाणका 'घलि' पूर्व द्वारसे समवसरणमें लाया गया। (८११-८२३३).: . .: __ . यह बलि शुद्ध और कमलके समान सुगंधीवाले चावलों
१-तीर्थकर, कुमकर, चक्रवर्ती इत्यादिका अधिकार जिसमें बताया गया है उस दृष्टिवादका एक विभाग ! २-आदेश, श्राशा। ३-गच्छ या समान क्रियाएँ करनेवाले साधुनोंका समुदाय । ४-उपदेशोंसे पूर्ण। ५-प्रस्थ शब्दका अर्थ 'सेर दिया गया है। मगर जान पड़ता है कि उस जमानेका 'सेर वजन, इस जमानेके सेरसे . बहुत अधिक होगा।