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भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
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साम्राज्य लक्ष्मीके सिंहासन जैसा दर्भका नया संस्तार (विस्तर) चक्रवर्तीने वहाँ विछवाया। उन्होंने हृदयमें मागधतीर्थ कुमारदेवको धारण कर सिद्धिका आदि द्वाररूप अष्टम भक्त (अट्ठमतीन उपवासका ) तप किया। बादमें निर्मल वस्त्र धारण कर, अन्य वनों, फूलोंकी मालाओं और विलेपनका त्याग फर, शत्रोंको छोड़, पुण्यका पोषण करने में दवाके समान पौषधव्रत ग्रहण किया। अव्ययपद (मोक्ष) में जैसे सिद्ध रहते हैं वैसे दर्भके विस्तरपर पौषधव्रती महाराज भरत जागते हुए और क्रियारहित होकर रहे। अष्टमतपके अंतमें पौषधव्रतको पूरा कर शरद ऋतुके बादलोंमेंसे जैसे सूरज निकलता है वैसे अधिक कांतिवान भरत राजा पौषधागारमेंसे निकले और सर्व अर्थको (सिद्धिको) पाए हुए राजाने स्नान करके बलिविधि की। कारण
'यथाविधि विधिज्ञा हि विस्मरंति विधिं न हि ।" . यथार्थ विधिको जाननेवाला पुरुप कभी विधिको नहीं भूलते। ] (७८-८८)
फिर उत्तम रथी राजा भरत पवनके समान वेगवाले और सिंहके समान धीरे घोड़े जिसमें जुते हैं ऐसे सुंदर रथपर सवार हुआ । वह रथ चलता हुआ प्रासादसा मालूम होता था। उसपर ऊँची पताकाओंवाला ध्वजस्तंभ था। शस्त्रागारकी तरह अनेक तरहके शस्त्रोंसे वह सजा हुआ था । उस रथपर चारों तरफ चार घंटे बंधे हुए थे। इनकी आवाज मानों चारों दिशाओंकी विजयलक्ष्मीको बुला रही थी। तत्कालही, इंद्रके सारथी मालतीकी .. तरह, राजाके भावोंको जाननेवाले सारथीने लगाम खींची और - घोड़ोंको हाँका राजा भरत दूसरे समुद्रकी तरह समुद्र किनारे