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२८६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १. सर्ग ४,
सुंदर तंबुओंमें अच्छी तरहसे रहते हुए सेनाके लोग अपने महलोंको भी याद नहीं करते थे। खेजड़ी, ककंधु (वेर) और वत्थूल (केर) के समान काँटेदार वृक्षोंको छूटनेवाले (टहनियों
और पत्चोंको खानेवालेॐट सेनाके काँटे चुननेवाले हों ऐसे मालूम होते थे। स्वामीके सामने नौकरोंकी तरह खच्चर गंगाके रेतीले तीरपर अपनी चाल चलते और लोटते थे। कई श्रादमी लकड़ियाँ लाते थे, कई नदीसे पानी लाते थे, कई दूबके बोमे लाते थे और कई शाक फलादि लाते थे। कई चूल खोदते थे, कई शालि कूटते थे, कई श्राग जलाते थे, कई भात पकाते थे, कई घरकी तरह एक तरफ निर्मल जलसे स्नान करते थे,कई सुगंधित धूपसे शरीरको धूपित करते थे, कई पदातियोंको (प्यादोंको) पहले भोजन कराकर खुद बादमें आरामसे भोजन करते थे
और कई त्रियोसहित अपने अंगपर विलेपन करते थे। चक्रवतीकी छावनी में सभी चीजें श्रासानीसे मिल सकती थीं इसलिए कोई अपनेको फौजमें श्राया हुआ मानता न था। (६६-७७ )
भरत एक दिन-रात रहकर सवेरेही वहाँसे विदा हुए और उस दिन भी एक योजन चलनेवाले चक्रके पीछे एक योजन चले । इस तरह हमेशा एक योजन प्रमाणसे चक्रके पीछे चलनेवाला चक्रवर्ती मागधतीर्थ पहुंचा। वहाँ पूर्व समुद्रके तटपर महाराजाने छावनी डाली । वह वारह योजन लंबी और नीयोजन चौड़ी थी। बद्धकी रत्नने वहाँ सारी सेनाके लिए श्रावास (मकान) बनाए। धर्मरूपी हाथीकी शालारूप पौपधशाला भी मनाई। केसरीसिंह जैसे पर्वतसे उतरता है वैसेही महाराजा भरत पापयशालामें रहनकी इच्छासे हाथीसे उतरे । संयमरूपी