________________
...:. .
श्री अजितनाथ-चरित्रः . .
[७११
इनमेंसे हरेक निधिके हजार हजार देवता सानिध्यकारी होते हैं. अर्थात साथमें रहते हैं। उन्होंने चक्रीसे कहा, "हे महाभाग ! हम गंगाके मुंहके पास मगध तीर्थमें रहती है। वहाँसे तुम्हारे भाग्यसे तुम्हारे वशमें होकर यहाँ, तुम्हारे पास आई हैं। अब इच्छानुसार हमारा उपभोग करो या दे दो। शायद क्षीर समुद्रका क्षय हो जाए, मगर हमारा क्षय कभी नहीं होगा। हे देवा नौ हजार सेवकोंसे रक्षित, वारह योजनके विस्तारवाले,
और नौ योजनकी चौड़ाईवाले आठ चक्रोंपर स्थित हम तुम्हारी सेविकाओंकी तरह पृथ्वीमें तुम्हारे साथ चलेंगी।"
(२७७-२८३) . . उनका कहना स्वीकार कर चक्रीने पारण किया और
आतिथेय की तरह उनका अष्टाहिकामहोत्सव किया। . ....... सगर राजाकी आज्ञासे नदीकी पूर्व दिशामें रहा हुआ दूसरा निष्कुट भी एक गाँवकी तरह सेनापतिने जीत लिया। गंगा और सिंधु नदीकी दोनों बाजुओंके चार निष्कुटोंसे और उसके मध्यके दो खंडोंसे यह भरतक्षेत्र पटखंड कहलाता है। उसे सगर चक्रीने बत्तीस हजार बरसमें धीरे धीरे आरामसे जीत लिया। कहा है,
- "अनुत्सुकानां शक्ताना लीलापूर्वाःप्रवृत्तयः ।।" . . शक्तिमान पुरुपोंकी प्रवृत्ति उत्सुकता रहित लीलापूर्वक. विपशिलांकापुरुषचरिते। जैन शास्त्रों में नैसदि निधियाँ हैं। जिनका उल्लेख त्रिपरिशलाका पुरुष चरित्रमें है। ] संस्कृतमें निथि · शब्द पुल्लिंग है। ... ... ... :
१-मेहमानवाजी-अतिथि सत्कार.! . . . . .... . . . . .
-