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भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
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पवनके द्वारा उठाई हुई तरंगोंकी तरह सिंधुदेवीका आसन कंपित हुआ । अवधिज्ञानसे चक्रवर्तीको पाया जान बहुतसी दिव्य भेटें लेकर वह उनकी पूजा-सत्कार करने सामने भाई। देवीने आकाशमें रह 'जय ! जय !' शब्दके द्वारा असीस देकर कहा, "हे चक्री ! मैं आपकी सेविका होकर यहाँ रहती हूँ। आप प्राज्ञा दीजिए, मैं उसका पालन करूँ. फिर उसने मानों लक्ष्मीदेवीके सर्वस्त्र हों ऐसे और मानों निधान (खजाने) की संतति हों ऐसे रत्नोंसे भरे हुए एकहजारआठ कुंभ; मानों प्रकृतिकी तरहही कीर्ति और जयलक्ष्मीको एक साथ बैठानेके लिए हो ऐसे रत्नोंके दो भद्रासन; शेषनागके मस्तकपर रहनेवाली मणियोंसे बनाए हुए हों ऐसे प्रकाशमान रत्नमय बाहुरक्षक (भुजबंध); मानों वीचमें सूर्यविंवकी कांतिको बिठाया हो ऐसे कड़े और मुट्ठीमें समा जाएँ ऐसे सुकोमल दिव्य वस्त्र चक्रवर्तीको भेट किए । सिंधुराज ( समुद्र ) की तरह इनने सब चीजें स्वीकार की और मधुर बातचीतसे देवीको प्रसन्न कर विदा किया। फिर पूनोंके चाँदके समान सोनेके वासनमें भरतने अट्ठम तपका पारणा किया और वहाँ देवीका अष्टाहिका उत्सव कर चक्रके बताए हुए मार्गसे आगे प्रयाण किया।
(२१५-२२६) उत्तर और पूर्व दिशाओंके बीच में (ईशानकोनमें) चलते हुए वे अनुक्रमसे दो भरताद्धों के बीच में सीमाकी तरह रहे हुए वैताव्यपर्वतके पास जा पहुंचे। उस पर्वतके दक्षिण भाग पर, मानों कोई नया द्वीप हो इस तरह, लंबाई-चौड़ाईसे सुशोभित छावनी यहाँ डाली गई। वहाँ पृथ्वीपतिने अट्टमतप किया,