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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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(सिंहोंकीसी बैठकवाला) नामका प्रासाद ( मंदिर ) रत्नमय पाषाणसे, वार्द्धकि रत्नके पाससे वनवाया। उसकी चारों तरफ, प्रभुके समवसरणकी तरह, स्फटिक रत्नके चार रमणीक द्वार बनवाए और हरेक द्वारके दोनों तरफ शिवलक्ष्मीके भंडारके . . जैसे रत्नचंदनके सोलह कलश बनवाए। हरेक द्वारपर मानो साक्षात पुण्यवल्ली हो ऐसे सोलह सोलह रत्नमय तोरण वनवाए। प्रशस्ति लिपिके जैसी अष्टमंगलकी सोलह सोलह पंक्तियाँ रची, और मानो चार दिग्पालोंकी सभाओंको वहाँ लाए हों ऐसे विशाल मुख्य मंडप करवाए। उन चार मुख्य मंडपोंके आगे चलते हुए श्रीवल्ली मंडपके अंदर चार प्रेक्षासदन (नाटकगृह ) मंडप कराए। उन प्रेक्षामंडपोंके बीच में सूर्यधिवका उपहास करनेवाले वनमय अक्षवाट (जूआ खेलनेके स्थान ) बनवाए ।
और हरेक अक्षवाटके बीच में कमलमें कर्णिका (करनफूल) की तरह एक एक मनोहर सिंहासन बनवाया। प्रक्षामंडपके आगे एक एक मणिपीठिका रचाई। उनपर रत्नोंके मनोहर चैत्यस्तूप वनवाए । हरेक चैत्यम्तूपमें आकाशको प्रकाशित करनेवाली, हरेक दिशामें, बड़ी मणिपीठिकाएँ रची। उन मणिपीठिकाओंके ऊपर, चैत्यस्तूपके सामने, पाँच सौ धनुप प्रमाणवाली रत्ननिर्मित अंगोंवाली ऋपमानन, वर्द्धमान, चंद्रानन, व वारिपेण इन चार शाश्वत नामांकी जिनप्रतिमाएं स्थापन कीं; पर्यकासनमें बैठी, मनोहर, नेत्ररूपी कमलिनीके लिए चंद्रिकाके समान वे प्रतिमाएँ ऐसी थी जैसी नंदीश्वर महाद्वीपके चैत्यके अंदर
है। हरेक चैत्यस्तूपके आगे अमूल्य, माणिक्यमय, विशाल, . सुदर पीठिका (चबूतरी ) बनवाई । हरेक पीठिकापर एक एक
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