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४५] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ६.
चैत्यवृक्ष बनवाया। हरेक चैत्यवृक्षके पास दूसरी एक एक मणिपीठिका बनवाई; और प्रत्येकपर एक एक ईध्वज वनवाया। वे इंद्रध्वज ऐसे जान पड़ते थेमानो हरेक दिशाम धर्मने अपने जयस्तंन रोपे हो। हरेक इंदचजके आगे तीन सीढ़ियों और तोरणांवाली नंदा नामक पुष्करिणी (बावड़ी) बनवाई। स्वच्छ, शीनल जलसे भरी हुई और विचित्र कमलोंसे मुशोमित वे बावड़ियाँ दृषिमुन्न पर्वतकी आधारभूत पुष्करिणी के समान मनोहर मालूम होती थीं 1 (५६६-५८५)
उस सिंहनिषद्या नामक महाचैत्यके मध्यमागमें बड़ी मणिपीठिका वनवाई और समवसरणकी तरहही उसके मध्यभागमें विचित्र रत्नमय एक देवछंदक रचा। उसपर अनेक तरहके रंगोंक बन्नका चंदोत्रा बनवाया। वह असमयमें भी संध्या समयके बादलोंकी शोभा उत्पन्न करता था। उस चंदोवेके अंदर और बाजूने भी वचमय अंश बनवाए थे; तो भी चंद्रोवेकी शोमा तो निरंकुश हो रही थी। उन ग्रंकुशाम कुंभके समान गोल आँवलेके फल जैसे मोटे मोतियोंके, अमृतधाराके जैसे, हार लटक रहे थे। उन हारों के प्रांत (अगले ) भागोंमें निर्मल मणिमालिकाएँ बनाई थी; मणियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो वे तीन लोकमें रही हुई मणियोंकी खानामसे नमूनेके लिए लाई हुई हो। मणिमालिकाओंके अगले भागों में रही हुई निर्मल वन्नमालिकाएँ, सखियोंकी तरह, अपनी कांतिरूपी भुजाओंसे, परस्सर आलिंगन करती हो ऐसी मालूम होती थीं। इस चैत्यकी दीवारों में विचित्र मणिमय गवान (मरोखें) बनवाए थे। उनकी प्रभापटलस (प्रकाशसमूहसें) ऐसा मालम