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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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जैसे मालूम होते थे । अपनी विशालताकी सम्पत्तिसे, मानो हर्षित हुए हों ऐसे निरंतर फलते हुए पनसके वृक्षों से वह पर्वत शोभता था । अमावसकी रात्रि के अंधकार के समान श्रेष्मांतक वृक्षोंसे ( लिसोड़ों के पेड़ों से ), मानो अंजनाचलकी चूलिकाएँ (शिखर) वहाँ आई हों ऐसा, वह मालूम होता था । तोतेकी चोंचके समान लाल फूलोंवाले किंशुक ( पलास) के वृक्षों से वह, कुंकुमके तिलकोंवाले बड़े हाथी के समान, शोभता था । किसी जगह दाखकी शराब, किसी जगह खजूर की शराब और किसी जगह ताल (ताड़) की शराब पीती हुई भील लोगोंकी स्त्रियाँ, उस पर्वत पर पान गोष्ठियाँ ( शराबियोंकी मंडलियाँ) बनाती थीं । सूर्य के अस्खलित किरणरूपी बाणोंसे भी अभेद्य, ऐसे तांबूलों की लताओं के मंडपोंसे वह ऐसा मालूम होता था मानो उसने कवच धारण किया हो । वहाँ हरी भरी दूबके अंकुरों के स्वाद से आनंदित, मृगोंके मंडल बड़े बड़े वृक्षोंके नीचे बैठकर रोमंथ (जुगाली) करते थे । जातिवंत वैडूर्यमरिण हों ऐसे, आम्रफलों के स्वादमें, जिनकी चोंचें मग्न हैं ऐसे, शुकपक्षियों से वह पर्वत मनोहर लगता था । केतकी, चमेली, अशोक, कदंब और वोरसलीके वृक्षोंमेंसे पत्रनके द्वारा उड़ाए हुए परागसे उसकी शिलाएँ रजोमय (धूलवाली) हो रही थीं और मुसाफिरोंके द्वारा फोड़े हुए नारियलोंके पानीसे उसकी उपत्यका (तराई) पंकिल ( की चवाली) हो रही थी । भद्रशाल आदि वनों का कोई एक वन वहाँ लाया गया हो, ऐसी विशालतासे सुशोभित अनेक वृक्षोंवाले वनसे वह वन सुंदर लगता था । मूलमें पचास योजन, शिखर में दस योजन और ऊँचाई में आठ योजन ऐसे उस शजय