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___४७६ ] त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सगं ६.
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शत्रुजय गिरि चाँदीकं शिवम मानो विदेशमें आया हुआ बताध्यपर्वन हो. कई सोनके शिखगेंस मानो मम शिवर वहाँ श्राप हो, रत्नांकी बवानांसे मानो दुसरा गन्नाचल हो, और औषध समूह से मानो दूसरी जगह पाकर रहा हुआ हिमाचन्न पर्वत हो, ऐसा यह शत्रुजय पर्वत मालुम होता था। श्रासक्त होते हुए (बिलकुल पास आए हुए) बादलोसे मानो उसने सफेद बन्न घारगा क्रिप हो, और निकम्गक जलले मानो उसके कंधोपर अधोवस्त्र लटकत होगमा वह सुशोभिन होता था। दिन में निकट श्राप हुए मुरजसे मानो उसने ऊँचा मुकुट पहना हो और रातम पासमं याग हरा चाँदस मानो उसने चंदनरसका तिलक शिवा हो ऐसा यह जान पड़ता था। गगनको रोकनेवाले शिखरोसे मानो अनेक मन्नकोवाला हो, और नाइके वृक्षांस मानो अनेक मुजदंडवाला हो एसा यह मालूम होता था। वहाँ नारियलोंक चनों, उनके पक्रन पीनी पड़ी हुई लुवोंमें (गुच्छोंमें) अपने . बचोंके भ्रमसे बंद के मुंड इधरस उधर दौड़त थे और त्रामा
के फलों को नोइनके कानमें लगी हुई मौराष्ट्रदेशकी वियों - मीट गायनाको मृग ऊँचे कान करके उनत थे। ऊपरी भागकी
भूमि, ऊँची नोंक बहाने केतकीके पलिन (सफेद) ऊस श्राप हो वैसे, केतकीके जीगां वृक्षोंने परिपूर्ण थी। हर जगह श्रीखंड (चंदन) वृक्षक रसकी नरह पन्ति पड़े हुए सिंदुवार (निर्गुडी) के वृक्षांसे मानो उसने लार शरीरपर मांगलिक निलक किंप हो पसा वह पवन मान्नुम होता था। वहाँ शाखाओं में बैठे हुए बंदरांकी पटाने गुथ हर इमलीक वृत्त, पीपल और वट वृक्षों