________________
४७८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६.
पर्वतपर भगवान ऋषभदेव आरूढ़ हुए-चढ़े । (३६६-४१६) ___ वहाँ देवताओं के द्वारा बनाए गए समवसरणमें सर्वहितकारी प्रभु बैंठे और देशना देने लगे। गंभीर गिरासे देशना देते हुए प्रभुकी वाणीसे उस गिरिमेंसे प्रतिध्वनि होती थी, उससे ऐसा जान पड़ता था कि वह पर्वत प्रभुके पीछे अपनी गुफामें बैठा हुआ चोल रहा है। चौमासेके अंतमें मेघ जैसे वर्षासे विराम पाता है वैसेही, प्रथम पौरुपी पूर्ण होनेके बाद प्रभु देशनासे विराम पाए और वहाँसे उठकर मध्यगढ़में देवोंके द्वारा बनाए गए देवछंदमें जाकर बैठे। फिर मांडलिक राजाके पास जैसे युवराज बैठना है वैसेही, सभी गणघरों में मुख्य श्री पुंडरीक गणधर स्वामीके मूलसिंहासन के नीचेकी पादपीठपर बैठे और पूर्वकी तरहही सारी सभा बैठी। तब वे (पुंडरीक) भगवानकी तरहही धर्मदेशना देने लगे। प्रात:कालमें जैसे पवन ओसरूपी अमृतका सिंचन करता है वैसेही दूसरी पोरसी (पहर) समाप्त होने तक उन महात्मा गणधरने देशना दी। प्राणियों के उपकारके लिए इसी तरह देशना देते हुए प्रभु श्रष्टापदकी तरह कुछ समय तक वहीं रहे। एक बार विहार करनेकी इच्छासे जगद्गुमने गणधरोंमें पुंडरीक (कमल) के समान पुंडरीकको आज्ञा दी, "हे महामुनि ! हम यहाँसे दूसरी जगह विहार करेंगे और तुम कोटि मुनियों के साथ यहीं रहो। इस क्षेत्रके प्रभावसे, परिवार सहित तुमको थोड़ेही समयमें केवलज्ञान होगा। और शैलेशी ध्यान करते हुए तुम परिवार सहित इसी पर्वतपर मोक्ष पाओगे।"
प्रमुकी आज्ञा अंगीकार कर, प्रणाम कर पुंडरीक गणघर कोटि मुनियों के साथ वहीं रहे। जैसे उद्वेल ( मर्यादासे अधिक