________________
२६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पत्र १. सर्ग ४.
महाराजाके बैठनेसे रथ शोमने लगा। अनुकूल पवनसे चपत धनी हुई पताकाओंसे श्राकाशको मंहित करता हुया वह उत्तम रथ जहाजकी तरह समुद्रमें चला। रथको नामि (धुरी ) तक समुद्रके जल में लेजाकर सारथीने घोड़ोंकी लगाम खींची, घोड़े रके और रय ठहर गया । फिर श्राचार्य जैसे शिष्यको नमाते हैं (नम्र बनाते हैं) बैसेही पृथ्वीपतिने धनुपको मुकाकर चिल्ला घढ़ाया। संग्रामरूपी नाटककं श्रारंभ मुत्रधारकं समान वया कालके आह्वानके लिए मंत्र के समान, धनुषका टंकार किया। ललाटपर क्रीहुई तिलकलक्ष्मीको चुरानेवाला बाण मासे निकाला, धनुयपर चढ़ाया और चक्रालय बने हुए घनुपके मध्यभागमें धुरीका भ्रम पैदा करनेवाले उस वागाको महाराजाने कान तक लौंचा। कान तक बिचा हुया बाग मानों महारानसे पूछ रहा था कि बताइए में क्या कर ? फिर महागाजाने उस बांग्एको वरदामपति की तरफ चला दिया। श्राकाशमें प्रकाश करते हुए जानेवान्ने उस बयाको पर्वतोन वनक्री भ्रांतिसे, सपनि रहते हुए गनड़की भ्रांतिसे और समुद्रने वडवानलकी भ्रांतिसे भयके साथ देखा । बारइयोजन होकर वह बाण चिजलीकी तरह जाकर वरदामपतिकी सभामें गिरा | शत्रुक भेजे हुए धानककी तरह उस बाणको गिरते देख बरदामपति नाराज हुया और उचलते हुए समुहकी तरह उभ्रांत प्रकुटिम तरंगित हो उत्कट (कटोर) वाणीमें बोला, (१५६-१७३ )
"अरे यह कौन है जिसने ठोकर लगाकर इस सोते हुए ...सिंहको जगाया है। श्रान मौतने क्रिमका पत्रा खोला है ?
कोद्दीकी तरह पाज किसे अपने जीवन में गग्य हुभा है कि