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भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
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जिसने साहस करके मेरी सभामें बाण फेका है। इसी बाणसे मैं इस बाणको फेकनेवाले के प्राण लूँगा।"
__उसने क्रोधके साथ बाणको उठाया । मगधपतिकी तरहही वरदामपतिने भी चक्र बाणपर लिखे हुए अक्षर पढ़े। उन अक्षरोंको पढ़कर वह इसी तरह शान्त हो गया, जिस तरह नागदमन औषधसे सप शांत हो जाता है। वह बोला, "अहो ! मेंढक जैसे काले साँपको तमाचा मारनेके लिए तैयार होता है, वकरा जैसे अपने सींगोंसे हाथीपर प्रहार करनेकी इच्छा करता है, हाथी जैसे अपने दाँतोंसे पर्वत गिराने की इच्छा करता है, वैसेही मैं मंदबुद्धि भरत चक्रवर्तीसे युद्ध करनेकी इच्छा करने लगा।'
फिर उसने यह सोचकर अपने आदमियोंको उपायन(भेट) लानेकी आज्ञा की कि अब तक भी कुछ नहीं बिगड़ा है। वह अनेक तरहकी भेटें लेकर, इंद्र जैसे ऋपभध्वजके पास जाता है वैसेही, चक्रवर्ती के पास जानेको रवाना हुश्रा। वहाँ जाकर उसने चक्रवर्तीको नमस्कार किया और कहा, "हे पृथ्वीके इंद्र !
आपके दूनके समान आए हुए बाणके बुलानेसे मैं यहाँ पाया हूँ। आप खुद यहां आए हैं, तो भी मैं स्वतः आपके सामने नहीं आया, 'मुझ मूर्खके इस दोपको क्षमा कीजिए। कारण,"निहते दोपमज्ञता।" [अज्ञानता दोपको ढक देती है।]
हे स्वामी ! जैसे थकेहुए श्रादमीको विश्रामस्थान मिलता है, और प्यासे आदमीको जैसे भरा सरोवर मिलता है, वैसेही मुझ स्वामीहीनको आपके समान स्वामी मिले हैं। हे पृथ्वीनाथ ! समुद्रपर जैसे वेलाधर पर्वत रहता है वैसेही, मैं भाजसे