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२६६ ] त्रिषष्टिं शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. आपके रखे हुए ( मनुष्यकी तरह ) आपकी श्रान्नामें रहूँगा।"
ऐसा कहकर वरनामपनिने उस वाणको भरतके सामने ऐसे रखा जैसे कोई किसी धरोहरको उसके सामने रखवा है, मानों सूरजकी क्रांनिसट्टी गुंथा हुआ हो वैसा अपनी क्रांतिसे दिशामुम्बको प्रकाशित करना हुआ एक रत्नमय कटिसूत्र (कदोरा), ओर मानों यशका नमूह हो ऐसा चिरकालसे संचित किया हुआ मोतिबांका समूह उसने भरत राजाको भेट किए। इसी तरह जिसकी उज्ज्वल कांति प्रकाशित हो रही है ऐसा और मानो रत्नाकरका सर्वत्र हो ऐसा एक रत्नसमूह भी उसने भरतको भेट किया । सब चीजें स्वीकार कर मरतन वरदामपतिको अनुग्रहीत किया और मानों अपना कीर्तिकर हो ऐसे उसे वहाँ स्थापित किया (मुर्रिर किया, फिर कृपापूर्वक वरदामपतिको विदा कर विजयी भरतेश अपनी छावनी में प्राया। (१७४-१२)
रथसे उत्तर, स्नान कर, उस राजचंद्रन परिजन सहित, अट्टम तपा पारणा किया और फिर वहाँ बरदामपतिकाअष्टाहिका उत्सव किया। कारण,
'लोके महत्वदानाय महंत्यात्मीयमीश्वगः ।"
[स्वामी, लोगोंमें सन्मान कराने के लिए अपने आत्मीयजनोंका सत्कार करते हैं ।[ (१६३-१४)
फिर पराक्रममें द्वितीय इंद्रके समान चक्रवर्ती भरद चक्रके पीछे पीछे पश्चिम दिशा में प्रभासतीर्थकीतरफ चले । सेनासे उड़ती हुई धूलिके द्वारा आकाश और जमीनको भरते हुए कई दिनोंके बाद वे पश्चिम समुद्रपर आपहुँचे। उन्होंने पश्चिम समुद्रके किनारे