________________
...
श्री अजितनाथ-चरित्र ...
[७०७
-
..."प्रणिपातावसानो हि कोपाटोपो महात्मनाम् ।"
[महात्माओंका कोप प्रणिपात.पर्यंत ही होता है। चक्रवर्तीने भेटें स्वीकार की और कहा, “उत्तर भरतार्द्धके सामंतोंकी तरह तुम भी कर भरो और मेरे सेवक बनकर रहो।" ( उनके स्वीकार करनेपर) उनको सम्मान सहित चक्रीने विदा किया,
और अपने सेनापतिको सिंधुका पश्चिम भाग जीतनेकी आज्ञा की। . .. उसने पूर्व भागकी तरहही चर्मरत्नसे सिंधु नदी पार कर, हिमवंत पर्वत और लवण समुद्रकी मर्यादामें रहे हुए, सिंधुके पश्चिमाभागको.जीत लिया। प्रचंड पराक्रमी वह दंडपति-सेनापति म्लेच्छ लोगोंसे दंड लेकर जलसे भरे हुए. मेघकी तरह, संगरं.चक्रीके पास आया। विविध प्रकारके भोग भोगते,अनेक राजाओंसे पूजित चक्रवर्ती बहुत दिनों तक वहीं रहे। . it... 'नास्ति विदेशः कोऽपि दोष्मसाम् ॥" [पराक्रमी पुरुषों के लिए कोई स्थान विदेश नहीं है।]
(२३०-२४५) एक चार, प्रीष्मऋतुके सूर्यबिंयकी तरह, चक्ररत्न श्रायुधशालासे निकला और पूर्वके मध्यमार्गसे चला। चक्रके पीछे पीछे महाराजा क्षुद्रहिमालयके दक्षिणनित्यके निकट पाए भौर वहीं पड़ाव डालकर हे। उन्होंने क्षुद्र हिमालय नामके देवका स्मरण कर अष्टमतप किया और वे पौषधशालामें पौषधव्रत ग्रहण करके बैठे। तीन दिनके पौषधके अंतमें ये रथमें बैठकर
· । '१:-पर्वतकी दाहिनी तरफकी दाल । . . .
.
.