________________
७०८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव २. सग ४.
हिमालय पर्वतके निकट गएं। उन्होंने रथके अगले भागसे पर्वतको इस तरह तीन चार टक्कर लगाई जिस तरह हाथी दाँतोंसे प्रहार करता है। चक्रीने वहाँ रथके घोड़ोंको कामं रख, धनुपपर चिल्ला चढ़ा, उसमें अपने नामका वाण. रख, उसे चलाया। वह वाण, एक कोसकी दूरीपर हो ऐसे, बहत्तर योजन पर स्थित, शुद्धहिमालय देवके आगे जाकर गिरा। पाएको गिरते देख देव क्षणभरके लिए गुस्सा हुआ; मगर वाणके ऊपर लिखे हुए अक्षर पढ़कर वह तत्कालही शांत हो गया। फिर गोशीपचंदन, सब तरहकी दवाइयों, पद्महदका जल, देवदूष्य वन, वारण, रत्नोंके अलंकार और कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाएँ वगैरा पदार्थ उसने श्राकाशमें रहकर सगर चक्रवर्तीके भेट किए; सेवा करना स्वीकार किया और "चक्रीकी जय हो!" शब्द पुकारे। (२४६-२५४) ___ उसको विदा कर चक्री अपने रथको लौटा ऋपभकूट पर्वत पर गया। वहाँ भी उस पर्वतके तीन बार रथके अगले भागकी टक्कर लगाई और अश्वोंको नियममें रख उसने उस पर्वतके पूर्व भागपर कांकिणी रत्नसे ये अक्षर लिखे, "इस अवसपिणीमें मैं दूसरा चक्रवर्ती हुआ हूँ।" वहाँसे रथको लोटा, अपनी छावनीमें आ, उसने अष्टमतपका पारणा किया। फिर जिसकी, दिग्विजयकी प्रतिज्ञा पूरी हुई है उस सगर राजाने बढ़ी धूमधामसे हिमाचलकुमारका अष्टाह्निका उत्सव किया।
(२५५-२५८) वहाँसे चक्रके पीछे चलते चफ्री उत्तर-पूर्वके मार्गसे होते हुए सुखपूर्वक गंगादेवीके सम्मुख आए । वहाँ गंगाके निकट