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७.६], त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग ४.
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रत्न और छत्ररत्नके अंदर चक्रवर्ती, सारी फौज सहित सुखसे रहने लगा। गृहाधिप रत्न अनाज, शाक-पान और फलादिक, सवेरे बोकर शामके वक्त सबको देने लगा। कारण, उस रत्नका माहात्म्यही ऐला है। मेघनुमार अवंड चारासे इसी तरह वरसते रहे जिन तरह दुष्ट लोगोंकी दुष्ट वाणी वरसती है।
(२२०-२२६) एक दिन मगर चक्रवर्ती कोप सहित सोचने लगा, "वे कौन है जो मुझेसतानका काम कर रहे हैं?" उसके पास रहनेवाले सोलह हजार देवनाओंने यह बात जानी। वे कवच पहन, अन्न-शब धारण कर, नेयकुमारों के पास गए और कहने लगे, "हे अल्पबुद्धि नीचो! क्या तुम नहीं जानते कि यह चक्रवर्ती देवताओंके लिए भी अजेय है। अवमी अगर तुम अपनी मलाई चाहते हो तो यहाँस चले जाओ, अन्यथा कलेके माइकी तरह लंड खंड कर दिए जाओगे।" ___उनकी बातें सुनकर भयकुमार देववर्षा बंद कर जलमें मछलीकी तरह छिप गए और आपात जातिके किरातोंके पास जाकर बोने, "चक्रवर्तीको हम नहीं जीत सकते।" यह सुन किरात भयभीत हो,त्रियोंकी तरह बन्न धारण कर रत्नोंकी मेट ते, मगर राजाकी शरणमें गए। वहाँ वे आधीन हो, चक्रवर्तीके चरणों में गिर, हाथ जोड़ कहने लगे, "हम अज्ञान और दुर्मद है इसीलिए हमने, अष्टापद पशु मेघपर छलांग मारता है । श्रापको सताना चाहा। हे प्रमो! आप हमें हमारे अविचारी कामके लिए क्षमा कीजिए। हम आजसे आपकी यात्रा पालेंगे; आपके सामंत, प्यादे या संबक बनकर रहेंगे। हमारी स्थिति अय आपके हाथमें है।