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.. सागरचंद्रका वृत्तांत :
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अनतिस्थूल (बहुत मोटी नहीं ऐसी). और द्वादशांगके अर्थको मतानेवाली थी। उनकी आँखें अंदरके भागमें श्याम व सफेद और किनारेपर लाल थीं इससे मानों वे नीलमणि,स्फटिकमणि
और शोणमणिसे बनी मालूम होती थीं। कानातक फैली हुई ' और काजलके समान काली भौहोवाली आँखें,मानों भौरे जिन' में लीन होरहे हों ऐसे कमलसी मालूम होती थीं। उनकी श्याम
और टेढ़ी भौंहें, दृष्टिरूपी पुष्करिणी (जलाशय-विशेष ) के तीरपर उगीहुई लताकी शोभाको धारण करती थीं। मांसल, गोल, कठिन, कोमल और समान ललाट अष्टमीके चंद्रमाके समान शोभता था। और मौलिभाग (ललाटके ऊपरका भाग) क्रमशः उन्नत था. वह उलटे किए हुए छत्रसा जान पड़ता था। जगदीश्वरपनको सूचित करनेवाला प्रभुके मौलिछत्रपर विराजमान गोल और ऊँचा मुकुट कलशकी शोभाको धारण करता था और टेदे, कोमल, स्निग्ध और भौरेके जैसे काले केश यमुना नदीकी तरंगोंके समान जान पड़ते थे। प्रभुके शरीरपर गोरोचनके गर्भके समान गोरी, स्निग्ध और स्वच्छ त्वचा (चमड़ी) सोनेके रससे पोती हुई हो ऐसी, शोभती थी। और कोमल, भौरेके जैसी श्याम, अपूर्व उद्गमवाली और कमलतंतुके समान वारीक रोमावली शोभती थी। (६५२-७२६)
इस तरह अनेक तरहके असाधारण लक्षणोंसे युक्त प्रभु, रत्नोंसे रत्नाकरकी तरह किसके सेव्य (सेवा करने योग्य) न थे? अर्थात सुर, असुर और मनुष्य, सबके सेव्य थे। इंद्र उनको हाथका सहारा देते थे, यक्ष चमर डुलाते थे और चिरजीवो ! चिर जीवो!' कहते हुए असंख्य देवता उनके चारों