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दसवाँ भव-धनसेठ
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१९. श्रत पद--श्रद्धासे, उद्भासन-प्रकाशनसे और अवर्णवाद-निंदाको मिटाकरके श्रुतज्ञानकी भक्ति करना उन्नीसवीं श्रुतस्थानक आराधना है।
२०. तीर्थ पद-विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्मकथा आदिसे शासनकी प्रभावना करना बीसवीं तीर्थस्थानक आराधना है।
इस बीस स्थानकोंमेंसे एक एक पदकी आराधना भी तीर्थंकर नामकर्मके बंधनका कारण होती है; परन्तु वजनाभ मुनिने तो इन बीसों स्थानकोंकी आराधना करके तीर्थंकर नामकर्मका बंध किया था। (८८२-६०३) ___ बाहु मुनिने साधुओंकी सेवा करके चक्रवर्तीके भोग-फलोंको देनेवाला कर्म बाँधा । (६०४)
तपस्वी मुनियोंकी विश्रामणा-सेवासुश्रुषा करके सुबाहु मुनिने लोकोत्तर बाहुबल उपार्जन किया । (६०५)
तब बज्जनाभ मुनिने कहा, "अहो ! साधुओंकी वैयावच्च और विश्रामणा ( सेवा-सुश्रूषा ) करनेवाले इन बाहु और सुबाहु मुनियोंको धन्य है।" (६०५-६०६) . तब प्रशंसा सुनके पीठ और महापीठ मुनियोंने सोचा कि जो लोगोंका उपकार करते हैं उन्हींकी तारीफ होती है। हम दोनों आगमोंका अध्ययन करने और ध्यान करने में लगे रहे, इसलिए किसीका कोई उपकार नहीं करसके, इसलिए हमारी तारीफ कौन करेगा ? अथवा सभी लोग अपना काम करनेवालेही को मानते है । (६०७-६०८ )