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४३८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग इ.
बैंसही इलाज के बिना मरीचि लिए यह रोग अधिक दुःखदायी हुया। बड़े जंगल में नहायताहीन पुस्पकी तरह घोर रोगमें पड़ा हुआ मरीचि अपने मनमें विचार करने लगा, "अहो ! मेरे इस भवमही किसी अशुभकर्मका उदय हुआ है, इसलिए, अपने साधु भी पराएकी तरह मरी पंक्षा करते हैं, परंतु उल्लू जैसे दिनमें नहीं देख सकना, इलमें प्रकाश करनेवाले सूर्यका कोई दोष नहीं है वैसेंही, मर चार में भी, अनातिका आचरण करनवान्त इन लाधुग्रांका कुछ भी दोय नहीं है। कारण, जैस उत्तम कुलवाल मलेच्छकी संवा नहीं करने ऐसही, पापक्रमांक त्यानी साधु: मुन्न पापकर्म करनेवालकी लेवा कैसे करेंगे ? और उनसे सेवा कराना भी मेरे लिए योग्य नहीं है। कारण, व्रतमंग करनेसे मुझे जो पाप लगा है, उनस सेवा करनेसे उसमें वृद्धिही होगी। नुम अपने इलाके लिए किसी अपने समान मंद धर्मवान्त पुन्यकीही नलाश करनी चाहिए, कारण कि मृग साय मृगहीका मत हालकना है। इस तरह विचार करता ह्रश्रा कुछ समय बाद मरीचि रोगमुक्त हुआ। कहा है,
कालादनूपरन्त्रं हि वजत्यूपरभृरपि । [असर जमीन भी किसी ममय यापही उपजाऊहो जाती है। ] (२-३८)
एक समय प्रमुपमन्त्रामी, विधका उपकार करने में वपा. शतक मयसमान, देशना दहथे। वहाँ कपिल नामका काई दूर-मन्य राजकुमार पाया और उसने धम चुना। उस भगवानका बताया हुया धर्म इसी तरह अच्छा नहीं लगा जिस तरह चक्रवाकको चाँदनी, मलको दिन,माग्यहीन रोगीको दवा,बातराग