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सागरचंद्रका वृत्तांत - .
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' . [भक्तिमें पुनरुक्तदोष नहीं होता। 7 देवताओंने जिसका मस्तकाभिषेक किया है ऐसा वह भक्तिमान इंद्र, हाथ जोड़, उन्हें मस्तकसे ऊपर उठा, स्वामिनी मरुदेवीसे कहने लगा,___ "अपने उदरमें पुत्ररूपी रत्नको धारण करनेवाली और जगदीपकको प्रकाशित करनेवाली, हे जगन्माता! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप धन्य हैं ! आप पुण्यवान हैं। आपका जन्म सफल है और आप उत्तम लक्षणोंवाली हैं। तीनलोकमें पुत्रवाली स्त्रियों में आप पवित्र हैं; कारण-धर्मका उद्धार करनेमें अंग्रणी और आच्छादित ( ढकेहुए) मोक्षमार्गको प्रकट करनेवाले भगवान आदि तीर्थंकरको आपने जन्म दिया है। हे देवी! मैं सौधर्मेंद्र देवलोकका इंद्र हूँ; आपके पुत्र अरिहंतका जन्मो. त्सव करने यहाँ आया हूँ। इसलिए आप मेरा भय न रखें।" . . फिर इंद्रने अवस्वापनिकानिद्रा (गहरी नींदमें सुलानेवाली नींद ) में मरुदेवी माताको सुलाया; उनकी बगल में प्रभुकी एक मूर्ति बनाकर रखी और अपने पाँच रूप बनाए । कारण, शक्तिशाली लोग अनेक रूपोंसे प्रभुकी भक्ति करनेकी इच्छा रखते हैं। उनमेंसे एक रूप भगवानके पास गया और नम्रतासे प्रणाम कर बोला, "हे भगवन ! आज्ञा दीजिए।" इस तरह कहकर उस कल्याणकारी भक्तिवाले इंद्रने अपने गोशीर्षचंदन लगे हुए दोनों हाथोंसे, मानों भूर्तिमान कल्याणही हों ऐसे, भुवनेश्वर भगवानको उठाया एक रूपसे जगतके तापको नाश करनेमें छत्रके समान जगत्पिताके मस्तकपर, पीछे रहकर, छत्र रखा। स्वामीके दोनों तरफ बाहुदंड (भुजाओं) की तरह दो रूपोंमें रहकर सुंदर चँवर धारण किए और एकरूपसे मानों मुख्य द्वारपाल हो इस तरह