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१३.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३.
को एक देवच्छंद बनाया। नीसरे कोट के बीचमें व्यतर देवोंने एककोस और चौदहमी धनुय ऊँचाचैत्य वृक्ष बनाया। व्यंतरोंनेही उसके नीचे प्रभु बैठनका सिंहासन, देवच्छेदक, दो दो चवर और छत्रत्रया भी बनाए। इस तरह देवताओने, सभी आपत्तियों को हरनेवाले और ममारसे घबराए हुए पुरुषोंके लिए आश्रय समान समवसरणकी रचना की। (३४५-३७०)
फिर मानो चारगा हो गसे, जय जय शब्द करते हुए, देवताओंके द्वारा चारों नरकसे घिरे हुए, और देवताओंके द्वारा बनाए हुप सोन नवीन कमलोंपर श्रनुक्रमसे चरणकमल रखते हुए प्रमुने पूर्वद्वारले प्रबंश कर चैत्यगृहकी प्रदक्षिणा की।
....."आवश्यविधिलिंव्यो महतामपि।"
[महान पुरुष भी श्रावश्यक विधिका उलंघन नहीं करते है।] फिर 'नाथाय नमः' इस बाक्यस तीर्थको नमस्कार कर प्रभु पूर्वकी तरफ मुम्ब करके सिंहासन मध्यभागमें बैठे। उस समय शेषकर्म अधिकारी व्यंतरदेवान बाकी तीनों दिशाश्रामें प्रमुके प्रतिबिंध बनाए। स्वामी प्रमावसे वे प्रतिबिंब प्रमुझे लपके समानही हुए, अन्यथा वे प्रभु के समान प्रतिबिंब बनाने में समर्थ नहीं हैं। उस समय पीछेक भागमें भामंडल,
आंग धर्मचक्र और वन्यन तथा प्राकाश ददुमि-नाद प्रकट हए। फिर साधु-साध्वियों और चैमानिकदेवोंकी देवियाँ-ये तीन पर्षदाएँ-यूद्वार प्रवेश कर, प्रमुको तीन प्रदक्षिणा सहित प्रणाम कर, अग्निकांनमें पाई । साधु आगे बैठ गए
है-एक पर दूसरा और दूसरे पर नोटरा ।