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भ० ऋपभनाथका वृत्तांत
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सवेरे धर्मचक्रवर्ती भगवानके आगे, सुगंधसे मतवाले बने हुए भौरे जिनपर गूंज रहे हैं ऐसे, फूलोंके गुच्छे लाकर रखते थे। जैसे सूरज और चाँद रातदिन मेरु पर्वतकी सेवा करते हैं वैसेही वे सदा हाथोंमें तलवारें लिए प्रभुकी सेवामें, उनके पास खड़े रहते थे और सवेरे शाम और दुपहरको हाथ जोड़, प्रणाम कर याचना करते थे, "हे स्वामी! हमको राज्य दीजिए। आपके सिवा हमारा कोई स्वामी नहीं है।” (१४०-१४४)
एक दिन नागकुमारोंका अधिपति श्रद्धालु धरणेंद्र प्रभुके चरणोंमें वंदना करनेके लिए आया। उसने अचरजके साथ, यालकोंके समान सरल दोनों कुमारोंको, प्रभुसे राज्यलक्ष्मीकी याचना करते और प्रभुकी सेवा करते देखा । धरणेंद्रने अमृतके समान मधुर वाणीमें उनसे पूछा, "तुम कौन हो और बड़े आग्रहके साथ प्रभुसे क्या माँगते हो ? जय प्रभुने एक बरस तक मुंहमाँगा दान दिया था तब तुम कहाँ गए थे? इस समय तो ये ममता-रहित, परिग्रह-रहित, अपने शरीरपर भी मोह नहीं रखनेवाले, और खुशी या नाराजगीसे मुक्त है।"
(१४५-१४७) धरणेद्रको भी प्रभुका सेवक समझ नमि-विनमिने पादरके साथ उससे कहा, "ये हमारे स्वामी है और हम इनके सेवक है। इन्होंने हमें किसी दूर देशमं भेज दिया और पीछेसे अपने भरतादि पुत्रोंको सारा राज्य चॉट दिया। यापिएनहोंने मयकुछ दे दिया है तथापि ये हमको राज्य देंगे। (ऐसा हमें विश्वास है।) सेवकको सिर्फ सेवा करना चाहिए इसे गा निंता पचों फरनी चाहिए कि मालिकके पास पुदई या नहीं?"
(१५०-२५३)