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७६४ } त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६.
रूप दीक्षा ग्रहण की ! जो सामंत और मंत्री जलकुमार श्रादिके साथ गए थे उन्होंने भी संसारसे विरक्त होकर सगर राजाके साथ दीक्षा ले ली। उसके बाद धर्मसारथि प्रभुने चक्रवर्ती मुनिके मनरूपी कुमुद के लिए चंद्रिकाके समान अनुशिष्टिमय(आज्ञामय) धर्मदेशना दी।प्रथम पौरुपी समाप्त हुई तब प्रभुने देशना समाप्त कर, उठकरके देवच्छंदको अलंकृत किया, फिर प्रभुकी चरणपीठिकापर बैठकर मुख्य गणधरने प्रभुकेप्रभावसे सभी संशयोंको छेदनेवाली देशना प्रभुके समानही दी। दूसरी पौरुषी समाप्त होनेपर, जैसे वर्षाका बरसना बंद होता है वैसेही, गणघरने भी देशना बंद की प्रभु विहार करनेके लिए वहाँसे विदा हुए और भगीरथादि राना और देवता अपने अपने स्थानोंको गए । (६३८-६५८) : - स्वामीके साथ विहार करते हुए सगर मुनिने मूलाक्षरों (स्वर-व्यंजनों) की तरह लीलामात्रम द्वादशांगीका अध्ययन किया। वे हमेशा प्रमाद रहित होकर, पांच समिति और तीन, गुप्तिरूपी आठ चारित्र-माताओंकी अच्छी तरहसे आराधना करते थे। हमेशा भगवानके चरणोंकी सेवा करनेसे होनेवाले हर्षके कारण, उनको होनेवाले परिसहोंके क्लेशोंका जरासा खयाल भी नहीं आता था। मैं तीन लोकके चक्री तीर्थकरका भाई हूँ और मैं खुद भी चक्रवर्ती हूँ ऐसा अभिमान न रखते हुए दूसरे मुनियोंके साथवे विनयका व्यवहार करते थे। पीछेसे दीक्षा ग्रहण करनेपर भी वे राजर्षि तप और अध्ययनसे पुराने दीक्षित मुनियोंसे भी अधिक (मान्य)हो गए थे। क्रमशः.वातिकमां के नष्ट होनेसे उनको इस तरह केवलज्ञान उत्पन्न हुआ