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श्री अजितनाथ-चरित्र
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. उसको इस तरह गुस्सेमें देखकर उसका नैगमिपी नामक सेनापति खड़ा हुआ और वह हाथ जोड़कर कहने लगा, "हे स्वामी ! मैं आपका आज्ञाकारी हाजिर हूँ, तो भी आपका यह आवेश किसपर है ? सुर, असुर और मनुष्योंमें न कोई
आपसे बढ़कर है, न कोई आपके समानही है । आपके आसनकंपका जो हेतु हुआ हो उसका विचार करके आप उसे अपने इस दंडकारी सेवकको बताइए।" (२४४-२५३)
सेनापतिकी यह बात सुनकर इंद्रने अवधान करके (ध्यान लगाकर) तत्कालही अवधिज्ञानसे देखा तो उसे दूसरे तीर्थंकरका जन्म होना इसी तरह मालूम हो गया जिस तरह जैन प्रवचनसे धर्म और दीपकसे अँधेरेमें वस्तु मालूम हो जाती है। वह सोचने लगा, "जंबूद्वीपके भारतवर्षमें विनीता नामकी नगरी है। उसमें जितराजाकी रानी विजयादेवीके गर्भसे इस छावस. पिणी कालमें दूसरे तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। इसीसे मेरा यह
आसन कौंपा है। मुझे धिक्कार है कि, मैंने उलटी बात सोची। मैंने ऐश्वर्यसे मत्त होकर दुष्कृत किया है, वह मिथ्या हो।"
(२५४-२५८) इस तरह विचार कर वह अपना सिंहासन, पादपीठ और पादुकाका त्याग कर खड़ा हुआ। शीघ्रतासे उसने, तीर्थकरकी दिशाकी तरफ, मानो प्रस्थान करता हो इस तरह, कई कदम रखे; फिर जमीनपर दाहिना घुटना रख, बायाँ घुटना जरा झुका, हाथ और सरसे भूमिको बू, स्वामीको नमस्कार किया। वह शक्रस्तवसे वंदना कर, वेलातटसे (भाटेकी तरह किनारेसे ) लौटे हुए समुद्रकी तरह वापस जाकर अपने सिंहा