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५६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग २.
करकं, मनिसे उन्नत बनी हुई उन देवियोंने, निनंद्रको रक्षाबंधन बाँधा और उन कानोंमें "तुम पर्वतकं समान आयुवान हो" कहकर आपस में रहनपापाणके दो गोले टकराए। फिर वे प्रमुको हाथांपर और विजयादीको भुजाओंपर उठाकर मुतिकागृहमें ले गई और वहाँ उन्होंने उनको शेयापर लिटा दिया। फिर वे स्वामी और उनकी माता सन्चल गुणोंका अच्छी तरहसे गान करती हुई थोड़ी दूरीपर, खड़ी रहीं।।
(२१५-२४३) इंद्रोंका आना माधमदेवलोक शकेंद्र अपने सिंहासनपर कटा था। वह महा वैभवशाली था। कोटि देवना और कोटि अप्सराएँ उसकी सेवामें थीं; कोटि चारण उसकी स्तुति कर रहे थे, गंधर्व अनेक नरहस उसके गुणसमूहका गान कर रहे थे वारांगनाएं उसकी दोनों नरक खड़ी होकर उसपर चमर दुला रही थी; मन्तऋक ऊपर रहे हम सफेद छत्रसे वह मुशामिन हो रहा था और मुघना समान उसका सुन्तकारी सिंहासन था। उस समय (भगवानका नन्म हुया उस समय ) उसका सिंहासन कापा । सिंहासनक काँपन वद्द गुन्के मार चंचल हो उठा। उनके पाठ काँपने लगे, इनसे बह हिलती हुई चालावाली आग हो ऐसा मालूम होने लगा, उसकी चट्टी हुई प्रचंड अश्रुटिसे बह मतुवाला श्राकाश हो गया भयंकर मालूम होने लगा, मदमस्त हाथोकी तरह उसका मुंह नौबंगला हो गया और इतने हप तरंगवान्न समुद्रकी तन्ह उसका ललाट त्रिवली अंकित हो गया। इस विनिमें उसने अपने शत्रनाशकवचकीतरफ देखा।