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श्री अजितनाथ-चरित्र
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बीचमें चतुःशाल ( चबूतरा ) बना उनके बीचमें एक एक बड़ा रत्नसिंहासन रचा। फिर वे कुमारियाँ प्रभुको हाथोंमें और माताको भुजाओंपर उठाकर दक्षिण कदलीगृहमें गईं। वहाँ चतुःशालके अंदर उत्तम रत्नसिंहासनपर स्वामीको और माताको आरामसे विठाया और खुद मालिश करनेवाली वनफर शतपाकादि तेलसे दोनोंके, धीरे धीरे मालिश की; सुगंधी द्रव्य और बारीक उवटनसे क्षणभरमें रत्नदर्पणकी तरह उन दोनोंके शरीरका मैल निकाल दिया। फिर वहाँसे वे उनको पूर्ववत पूर्व दिशाके कदलीगृह में ले गई। वहाँ चतुःशाल में रत्नके उत्तम सिंहासनपर प्रभुको और माताको, आरामसे बिठाकर गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदकसे उन्होंने, मानो जन्महीसे वे ( इस काममें ) तालीम पाई हुई हों ऐसे, स्नान कराया। चिरकालके वाद उपयोगमें आई हुई अपनी शक्तिसे कृतार्थताका अनुभव करती हुई उन्होंने उनको विचित्र रत्नोंके अलंकार पहनाए । फिर पहलेकीही तरह उनको लेकर वे उत्तर-दिशाके मनोहर कदलीगृहमें गईं। वहाँ उन्होंने उनको चतुःशालके सिंहासनपर विठाया। उस समय वे दोनों पर्वतपर बैठी हुई सिंहिनी और उसके पुत्रकी शोभाको धारण करते थे। वहाँ कुमारियोंने आभियोगिक देवोंसे, क्षणभरमें, क्षुद्रहिमाचलपरसे, गोशीर्षचंदनकी लकड़ियाँ मँगवाई। फिर अरणीकी लकड़ीको घिसकर
आग पैदा की। चंदनकी लकड़ियोंको घिसनेसे भी आग पैदा होती है। चारों तरफसे गोशीपचंदनके समिध करके, उन देवियोंने अाहिताग्नि ( अग्निहोत्री) की तरह उस भागको प्रज्वलित किया । उस अग्निके होमसे भूतिकर्म (जन्मसंस्कार)