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५६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पत्र २. सग २.
सनपर बैठा। फिर गृहत्य मनुष्य जैसे स्वजनोंको बताता है वैसेही, तीर्थकरके जन्मकी वान सब देवताओंको बतलानके और उनको उत्सबमें बुलाने के लिए, मानो मृर्तिमान हर्ष हो ऐसा रोमांचित शरीरबान इंद्रन अपने नगमेपी सनापतिको अाज्ञा दी। उसने इंद्रकी यात्राको इसी तरह सादर शिरोधार्य क्रिया जिस तरह प्यासा मनुष्य जल ग्रहण करता है। यह वहाँसे रवाना हुया और मुधर्मा समान्पी गाय गर्नका घंटा हो एम, योजन-मंडलवाल मुबाधा नागक घंटको उसने तीन बार बजाया। मथन किए जानवान्त समुद्र से उठनेवाली थावाज. की नरह, उसको बजानेसे उससे, सार विश्वकै कानोंके लिए अतिथिक समान, महानाद स्पन्न हुथा। इससे एक कम बन्नीस लाख चं, तत्कालही इसी तरह बन उठें जिस तरह गाय बोलने के बाद बछड़ बोलत है। उन घंटोंके महानादसे लाग सोधम कल्प शब्दानमय' हो गया। बत्तीस लाख विमानामक नित्य प्रमादी ऐसे देवता भी उस नादको सुननेसे, गुफाओं में सोते हुए सिंहॉकी नरह जाग्रत हुए। इनकी श्रान्नासे किसी देवन, घोषणापी नाटक नांदील्पर इस सुघोपा घंटको बनाया है. इस लिप इंदकी श्राना बतानेवाली घोपणाको अवश्य सुनना चाहिए यह सोचकर सभी देवता कान देकर गुननको तत्पर हुए । घंटाकी श्रावाज बंद हुई तब इंद्रके सेनापदिने बुलंद श्रावाजमें इस तरह कहना श्रारंभ किया,-" मोधर्म वनवासी देवतायों मुनी स्त्रिापनि इंद्र तुमकोआना
१-शम्द-यात्रा के दिया यहाँ और कुछ नहीं रहा। २-त्रधारक माना