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श्री अजितनाथ-चरित्र
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देता है कि, जंबूद्वीपमें भरतखंडके अंदर, अयोध्या नगरीके जितशत्रु राजाकी विजया रानीकी कोखसे, जगतके गुरु और विश्वपर कृपा करनेवाले दूसरे तीर्थंकरका,दुनियाके भाग्योदयसे, आज जन्म हुआ है। अपने आत्माको पवित्र करनेके लिए प्रभुका जन्माभिषेक करने के निमित्त हमें परिवार सहित वहाँ जाना चाहिए। इसलिए तुम सब, अपनी ऋद्धि और अपने बल सहित मेरे साथ चलनेके लिए, तत्कालही यहाँ आओ।" मेघ-गर्जनासे जैसे मोर प्रसन्न होता है वैसेही, यह घोपणा सुनकर सभी देव बहुत प्रसन्न हुए । तत्काल मानो स्वर्गीय प्रवहण (जहाज ) हों ऐसे, विमानों में बैठ बैठकर आकाशसमुद्रको पार करते हुए वे सभी इंद्रके पास आ पहुँचे।
(२५६-२८०) इंद्रने अपने पालक नामके आभियोगिकदेवताको श्राज्ञा दी कि "स्वामी के पास जाने के लिए एक विमान वनायो।" इससे उसने एकलाख योजनलंबा-चौड़ा, मानो दूसराजंबूद्वीप हो ऐसा, और पाँच सौ योजन ऊँचा एक विमान बनाया। उसके अंदरकी रत्नमय दीवारोंसे मानो वह उछलते हुए प्रवालोंवाला समुद्र हो, सोनेके कलशोसे मानो वह खिलेहुए कमलोंवाला समुद्र हो, लंबी ध्वजा
ओं के कपड़ोंसे मानो वह शरीरमें तिलक लगाए हुए हो, विचित्र रत्नशिखरोंसे मानो वह अनेक मुकुटोवाला हो, अनेक रत्नमय स्तंभोंसे मानो वह लक्ष्मीकी हथिनीका आलानन्तभवाला हो,
और रमणीक पुतलियोंसे मानो वह दूसरी अप्सराओंवाला हो ऐसा मालूम होता था। वह तालको ग्रहण करनेवाले नटकी तरह किंफिणीजालसे मंडित था, नक्षत्र सहित आकाशकी तरह वह