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५६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्य २. सर्ग २.
मोतियोंके माँधियोंसे अकिन था और ईहामृग, अश्व, बैल, नर, किन्नर, हाथी, हम, वनलता थोर पदालताओंके चित्रोंसे यह सजा हुया था। मानो महागिरिसे उतरते और विस्तृत होते हुए निर्भरणों की तरंगें हो ऐसी, विमानमें तीन तरफ सोपानपंक्तियाँ (सीढ़ियाँ) थीं । सोपानपंक्तियों के आगे इंदके अखंड धनुपकी श्रेणीक मानो सहोदर ही ऐसे, तोरण थे। उसका निचला भाग आपस में मिले हुए पुष्करमुख ( कमलमुख ) और उत्तम दीपक श्रेणी के जैसा समानतलवाला (फर्शवाला) और कोमल था। मुस्पर्शवाले और कोमल कांतिबाले पंचवर्णी चित्रोंसे विचित्र बना हुआ वह भूमिभाग, मानो मोरके पंखोंसे छाया हुआ हो ऐसा शोभना था। उसके मध्यभागमें मानो लक्ष्मीका क्रीड़ागृह हो और नगरी में मानो राजगृह हो ऐसा, प्रेक्षा-गृह-मंडप (नाटक घर ) था। उसके बीच में लंबाई और विस्तार में पाठ योजन प्रमाणवाली और ऊँचाईमें चार योजन प्रमागण्वाली एक मणिपीठिका थी। उसपर, अंगूठी में जड़े हुए बड़े माणिक समान, एक उसम सिंहासन था। उस सिंहासनपर, स्थिर हुई.शरद ऋतुकीचंद्रिका प्रसारका भ्रम पैदा करने. वाला चाँदीके जैसा उजाला उल्लोच (चंदोवा)था। उस उल्लोचके बीजमें एक बज्नमय अंकुश लटकता था। उसके पास एक मोतियोंकी हॉडियोका हार लटकता था और उसके चारों कोनोंपर, मानो छोटी बहनें हों ऐसी, उससे श्राधे श्राकारवाली मोतियोंकी हॉडियोंके चार हार लटक रहे थे। मंद पवनसे हार धीरे धीरे हिल रहे थे, मानो इंद्रकी लक्ष्मीके खेलनेके भूलेकी शोभाको चुरा रहे थे। इंद्रके मुन्न्य सिंहासनके ईशान कोनमें,