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22 ] त्रिषष्टि शन्ताका पुरुष-चरित्रः पर्व १. मर्ग ६.
करती थीं. उससे हरिगियोंक मारनं हा दधले उसका साग लतावन सिंचित होता था। शन्नोंक पत्नोंक प्राध बन्नोंवाली शवरियोंका नाच देखने के लिए यहाँ नगरकी वियों नेत्रांकी अंगी करके रहती थी (अथात एक टक नाच देखती थीं। रनिस थकी हुई मर्पिणियाँ वहाँ बनका मंद मंद पवन पीती थीं। उस लतावनको पवनपी नट कीड़ा नचाता था। किनकी त्रियाँ रनिक धारभन्ने उसकी गुमायाको मंदिरम्प बनानी श्री श्रीरश्रमगयों स्नान करने समयकी कल्लोलास सरोवरका जल नरंगित हो रहा था। यन्न कहीं चोपड़-पासा खेल रहे थे: कहीं पानगोष्टी कर रहे थे (शराब पी रह थे ?)
और कहीं बाजी चल रहे थे। इससे उसका मञ्चमान कोलाहलपूर्ण हो रहा था। उस पर्वतयर किसी जगह किनकी त्रियाँ, किसी जगह भीलोंकी त्रियों और किसी जगह विद्याधरांची त्रियाँ क्रीडा गीत गा रही थीं। किसी जगह पर पकी हुई दान्त्रीके फल लाकर उन्मत्त बन गुण शुक्र पक्षी ऋतरब करते थे, किसी स्यानपर. श्रामों अंकुर खाकर, उन्मत्त बनी हुई कोचिलाएँ पंचम स्वरमें अन्नाप नही श्री; किसी स्थानपर कमलतंतुयांक स्वादसे मन्न बने हुए हंस मधुर शब्दकर रह थ; किसी सरिताके नटपर मदमन बन हुए क्रांत्र पक्षी कार शन्द कर रहे थे। किमी नगढ़ पर निकटमें रह हुए भव उन्मत्त होकर मार
कारख कर रहे थे और किसी जगह अगेवर फिरत हुए भारस पक्षियों शब्द सुनाई देतः इनसे बह गिरि मनोहर मालूम होना था। यह पर्वत किसी जगह लात अशोक वृक्षक पनाल माना कवी बन्नवाला हो एमाः किसी जगह नमान्त,