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श्री अजितनाथ-चरित्र
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प्रतिहारीकी तरह, वह बड़ा सुंदर लगता था। फिर उस सौधर्म कल्पके इंद्रने अपने आभियोगिक देवतासे तत्कालही अभिपेकके उपकरण मँगवाए। उसने भगवानके चारों तरफ, मानो स्फटिकमणिके दूसरे पर्वत हों ऐसे, स्फटिकमय चार वैल बनाए। उन चार वैलोंके आठ सींगोंसे, जलकी चंद्रमाकी उज्ज्वल किरणोंके समान, आठ धाराएँ निकली। वे ऊपरकी ऊपरही मिलकर, जगतपतिके समुद्र के समान मस्तक पर गिरने लगीं। उसने इस तरह अलगही तरहसे प्रभुका अभिषेक किया। कारण,
"भग्यंतरेण कवियत् शक्ताः स्वं ज्ञापयंति हि ।"
[शक्तिवान पुरुप, कवियों के समान, तरह तरहकी रचनाप्रोसे-भावभंगियोंसे अपने आपको प्रकट करते हैं। अच्युतेंद्रकी तरहही उसने भी मार्जन, विलेपन, पूजा, अष्टमंगलका पालेखन और आरती-ये सब काम विधिपूर्वक किए; फिर शक्रस्तबसे जगतपतिको वंदना-नमस्कार कर हर्पभरे गद्गद म्वरमें इस तरह स्तुति की-(४५२-४६३) - हे त्रिभुवनके नाथ ! विस्वैकवत्सल ! (सारी दुनियाकी हितकामना करनेवाले और जगतके जीवोंपर स्नेह रखनेवाले!) पुण्यलताको उत्पन्न करने में नवीन मेघके समान हे जगतप्रभो!
आपकी जय हो! हे स्वामी ! जैसे पर्वतसे सरिताकी धारा निकलती है वैसेही, आप दुनियाको खुश करने के लिए विजय नामके विमानसे आए हैं। मोक्षरूपी वृक्षके मानो चीज हो ऐसे, उजले तीन ज्ञान ( मति, श्रुति और अवधि ज्ञान ), जैसे जलमें ठंडक होती हैं ऐसे, आपको जन्महीसे प्राप्त है। हे तीन भुवनक अधीश्वर ! दर्पणके सामने प्रतिबिंवकी तरह जो लोग श्रापको