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२४८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
धिक्कार है ! मैं स्वामीको नहीं देख पारहा हूँ, इसलिए मेरे लिए यह प्रभात भी अप्रभात है, सूरज भी असूरज है और नेत्र भी अनेत्र हैं ! ओह ! त्रिभुवनपति रातको इसी जगहपर प्रतिमारूप से रहे थे और निर्लन्न बाहुबली अपने महलमें पारामसे सोरहा था!" (३६६ ३७५) - . इस तरह की चिंतासे चिंतित बाहुबलीको देख शोकल्पी शल्यको निःशल्य करनेवाली (दुखको मिटानेवाली ) वाणीमें उसके मुख्य मंत्रीने कहा, "हे देव ! आप यह चिंता क्यों करते हैं, कि मैंने यहाँ आए हुए स्वामीको नहीं देखा ? कारण, वे प्रभु तो हमेशा आपके हृदयमें विराजमान दिखाई देते हैं । और यहाँ उनके चरणोंके यन्त्र, अंकुश, चक्र, कमल, ध्वजाऔर मछलीके चिह्नोंको देखकर यही मानिए कि मैंने भाव-दृष्टिसे ( साक्षात) स्वामीकोही देखा है।" (३७६-३७८)
सचिवकी बात सुनकर अंत:पुर और परिवार सहित सुनंदाके पुत्र बाहुबलीन चरण-चिट्ठोंकी वंदना ले। इन चरणचिह्नोंको कोई न लाँघे, इस विचारसे उनने उन चरण-चिहॉपर रत्नमय धर्मचक्र स्थापित किया। पाठयोजन लवा, चार योजन ऊँचा और हजार भारोंवाला वह धर्मचक्र ऐसाशोमता था मानों वह पूरा सूर्यर्विव हो । जिसका बनाना देवताओंके लिए भी कठिन है ऐसा तीन-लोकके नाय प्रभुके अतिशयके प्रभावसे वना हुआ धर्मचक्र बाहुबलीने देखा । पीछे तत्कालही सभी स्थानोंसे लाए हुए फूलोंस बाहुवलीने धर्मचक्रकी पूजाकी। इससे ऐसा मालूम हुआ कि वहाँ फूलोंका पर्वत बन गया है। नंदीश्वर द्वीपपर जैसे ई अहाई-महोत्सव करता है वैसेही वाहवतीने