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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
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वहाँ उत्तम संगीत और नाटकादिसे अद्भुत अट्ठाई-महोत्सव किया। उसके बाद धर्मचक्रकी पूजा तथा रक्षा करनेवाले पुरुषों को सदा वहीं रहनेकी आज्ञा कर,धर्मचक्रको वंदना कर बाहुबली राजा अपने नगरमें गये । ( ३७६-३८५)
. केवलज्ञानकी प्राप्ति इस तरह पर्वतकी तरह स्वतंत्रतापूर्वक और अस्खलित गतिसे (जो कहीं नहीं रुकती ऐसी चालसे ) विहार (भ्रमण) करनेवाले, तरह तरहकी तपस्याओंमें निष्ठा-भक्ति रखनेवाले, अलग अलग तरहके अभिग्रह (अमुक बात होगी तभी भोजन करूँगा, ऐसे नियम ) धारण करनेवाले मौनी, यवनडंब वगैरा म्लेच्छ देशोंके निवासी, अनार्य जीवोंको भी दर्शनमात्रसे भद्र (सदाचारी) बनानेवाले और उपसर्ग तथा परिसह सहन करनेवाले प्रभुने एक हजार वरस एक दिनकी तरह बिताए । . क्रमशः वे विहार करते हुए महानगरी अयोध्याके पुरिमताल नामक शाखानगर (उपनगर) में आए। उसकी उत्तरदिशाके, दूसरे नंदनवनके समान, शकटमुख नामक उद्यानमें प्रभुने प्रवेश किया। अष्टम तप( तीन दिनका उपवास) कर प्रतिमारूपसें रहे हुए प्रभु 'अप्रमत्त' नामक सातवें गुणस्थानमें पहुंचे। फिर 'अपूर्वकरण' नामक गुणस्थानमें आरूढ हो 'सविचार प्रथक्त्ववितर्क-युक्त' नामक शुक्लध्यानकी प्रथम श्रेणीको प्राप्त । हुए। उसके बाद 'अनिवृत्ति' नामक नवाँ और 'सूक्ष्म सांपराय नामक दसवाँ गुणस्थान पाकर क्षणभरमें वे 'क्षीणकषायपनको प्राप्त हुए। फिर उसी ध्यान द्वारा क्षणभरमें चूर्ण किएहुए लोभका नाश कर, रीठेके जलकी तरह ( रोठा पानीमें डालनेसे