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२५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पवं १. सर्ग३.
ऊपरसे पानी साफ होजाता है, उसी तरह ) 'उपशांतकषायी हए। फिर गोक्यचन अत्रिचार' नामक शुक्लन्यानकी दूसरी अंगीको पाकर व अंतिम चरणम, नगमरमें क्षीणमोह नामक वारहवें गुणस्थानमें पहुँचे । इससे उनके समर्मी घातिकमांका (पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरगीय और पाँच अंतरायकर्म,
से चौदह वानिकमांका) नाश हो गया। इस तरह व्रत लेनके एक हजार बरस बीननकं बाद, फाल्गुन महीनकी बड़ी एकादशीके दिन, चंद्र जब उत्तराषाढा नक्षत्र में पाया था तब, सबके समय, प्रभुको त्रिकाल विषय बाला (यानी तीनों कालांकी बातें जिससे मालूम होनी है गमा) कंवलज्ञान प्राप्त हुश्रा। इस ज्ञानसे नीनी लोकांकी बान हाथ में रहे हा पदार्थकी तरह मालूम होती है। उस समय दिशाण प्रसन्न हुई, मुखकारी हवा चलन लगी और नरके जीवोंको भी एक जगाके लिए, मुत्र हुआ।
(३८६-३६) उस समय समी इंद्रांक श्रासन काँपन लगा मानों वे स्वामीके कंचलनानका उत्सव करनेकी इंद्रांसे प्रेरणा कर रह हो । सभी देवलोकॉमें मधुर. शब्दावान घंटे वजन लगा मानों व अपने अपने देवलोक देवतायांको बुलानका काम कर रह हैं। प्रमुक चरणों में जानकी इच्छा रखनेवान सौधमंदकं सोचतेही, रावण नामका देव, गजका रुप धारण कर, तत्कालही उसके पास श्राया। उसने अपना शरीर एक लाख योजनका बनाया 1 वह पला शोमता या मानां वह प्रमुक दर्शनॉकी इक्छा रखनवाला चलना-फिरना मनपर्वन है। अपने शरीरकी-बरफक समान समंद कांतिम यह हाथी चारों दिशाओंमें चंदनका क्षेप