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दसवाँ भव-धनसेठ
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"स्नेहः प्राग्भवसंबंधो ह्यनुवध्नाति बंधुताम् ।"
[ पूर्वभवका स्नेहसंबंध इस भवमें भी बंधुता पैदा करता है । ] (७६१-७६६) ..
जैसे छः वर्षधर पर्वत मनुष्यरूप पाए हों वैसे वे पाँचों राजकुमार और छठा सुयशा क्रमशः यदे होने लगे। वे महापराक्रमी राजपुत्र चाहर राजमार्गों पर घोड़े कुदाते-दौड़ाते थे, इससे ये रेवंत ( सूर्यपुत्र ) के समान क्रीडा करनेवाले मालूम होते थे। कलाओं का अभ्यास कराने में उनके कलाचार्य साक्षीमात्रही होते थे। कारण
"प्रादुर्भवंति महतां स्वयमेव यतो गुणाः ।"
[महान आत्माओंमें गुण अपने आपही पैदा होते हैं। वे अपने हाथोंसे बड़े पर्वतोंको शिलाकी तरह तोलते थे-उठा लेते थे, इसलिए उनकी बालक्रीडा किसीसे भी पूर्ण नहीं होती थी। (७६७-८००)
एक दिन लोकांतिक देवोंने आकर राजा वनसेनसे कहा, "हे स्वामी, धर्मतीर्थका प्रवर्तन कीजिए, धर्मतीर्थ प्रारंभ कीजिए।" (०१)
१-चूल हिमवंत, मदादिमयंत, निश, शिरी, रूपी और नोवा ये पर्गत भरल. मितादि को करनेवाले , इसलिए पर्दभर पर्वत कहलाते हैं। वर्ष यानी क्षेत्र, भर पानी धारण करनेवाले पंधर पोको धारण करनेगाले।
--पाट का पानी , दर्शनावरली, सनी और रायगे मारकर्मपाला
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