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४६.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.
वनसेन राजाने वनके समान पराक्रमी वजनाभ पुत्रको गद्दीपर बिठाया और एकवर्ष तक दान देकर लोगोंको इस तरह तृप्त करदिया जिस तरह मेघ बरसकर जमीनको तर करदेते हैं। फिर देव, असुर और मनुष्योंके स्वामियोंने वनसेनका निर्गमनोत्सव क्रिया-जुलूस निकाला। और उन्होंने (वज्ञसेनने) शहरके बाहरके वागको जाकर इस तरह मुशोमित किया जिस तरह चाँद आकाशको सुशोभित करता है। वहीं उन स्त्रयंबुद्ध भगवानने दीक्षा ली । उसी समय उनको मनःपर्ययनान (जिससे हरेकके मनकी बात मालूम हो जाती है ऐसा ज्ञान) उत्पन्न हुआ। फिर आत्मस्वभावमें लीन रहने वाले, समतारूपी धनवाले, ममतारहित, निष्परिग्रही और अनेक तरहके अमिग्रह धारण करनेवाले वे प्रभु पृथ्वीपर विहार करने लगे।
(८०२-८०६) उधर वचनामने अपने हरेक भाईको अलग अलग देशोंके राज्य दिए । वे चारों भाई सदा उसकी सेवामें रहने लगे । इससे वह ऐसा शोभने लगा जैसे लोकपालोंसे इन्द्र शोभता है। अरुण जैसे सूर्यका. सारथी है वैसे सुयश उसका सारथी हुआ। महारथी पुरुषोंको सारथी भी अपने समान ही करना चाहिए । (८०७-०८)
वनसेन भगवानको, घातिकर्म रूपी मलके नाश होनेसे,
१-यह शास्वत नियम है कि जब कोई श्रात्मा तीर्थकर होने वाला होता है तो उसकी गृहस्थावस्थाम लाक्रांतिक देव श्राकर तीर्थ प्रवनिकी सूचना करते हैं। और वह दीना लेता है।
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