________________
- दसवाँ भव-धनसेठ
[१७
दर्पण (आइने) परसे मैल निकल जानेसे जैसे उज्ज्वलता प्रकट होती है वैसे ही उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (८०६)
उसी समय वजनाभ राजाकी आयुधशालामें सूर्यमंडलका भी तिरस्कार करनेवाले चक्ररत्नने प्रवेश किया। दूसरे तेरह रत्न भी उसको तत्कालही मिले । कहा है___ "संपद्धि पुण्यमानेनांभोमानेनेव पद्मिनी ।"
[जैसे कमलिनी जलके प्रमाणके अनुसार ऊँची होती है वैसेही पुण्यके अनुसार संपत्ति भी मिलती है।] सुगंधसे आकर्पित होकर जैसे भँवरे पाते हैं वैसेही प्रवल पुण्यसे आकर्पित नवनिधियों भी आकर उसके घर सेवा करने लगीं।
(८१०-८१२) फिर उसने सारे पुष्कलावती विजयको जीत लिया। इससे यहाँके सभी राजाने श्राकर उसको चक्रवर्ती बनाया। भोगोंका उपभोग करनेवाले उस चक्रवर्ती राजाकी धर्मबुद्धि भी इस तरह अधिकाधिक बढ़ने लगी मानो वह बढ़ती हुई आयुफी स्पर्धा फररही हो। अधिक जलसे जैसे लताएँ बढ़ती है वैसेही संसार. के वैराग्यकी संपत्तिसे उसकी धर्मबुद्धि भी पुष्ट होने लगी।
(१३-८१५) पावार साक्षात मोक्ष समान परम आनंद उत्पन्न करनेवाले वस्त्रसेन भगवान विहार करते हुए उधर आए। यहाँ उनका समवसरण या। समवसरण में यक्ष नीचे बैटकर उन्होंने कानॉक लिए अमृनकी प्रपा (ला) जैसी धर्मदेशना देनी पारंभ की। (८१६-०१७)