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३२८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.
"गृहागते स्वामिनि हि किमदेयं महात्मनाम् ।"
स्वामी जब घर आते हैं तब महात्मा सबकुछ उनको भेट करते हैं; कोई चीज उनके लिए अदेय नहीं होती है।] फिर भरतपतिन उनको विदा किया। वे घर आए और अपने पात्रोको राजदे, विरक्त हो, भगवान ऋषभदेवके चरणों में गए। वहाँ उन्होंने वन ग्रहण किया । (५३५-५३६)
महाननेजस्वी भरत चक्रवर्ती वहाँसे चक्ररत्नके पीछे चलतं हुए गंगाके तटपर आप। जाह्नवी (गंगा) किनारंसे बहुत दूर भी नहीं और बहुत निकट भी नहीं, ऐसे स्थानपर पृथ्वीके इंद्रने अपनी सेनाकी छावनी डाली। महाराजाकी पानासे सुषेण सेनापतिनं सिंधुकी तरहही गंगा पार कर उसके उत्तर-निष्कुट (प्रदेश) को जीता। फिर भरन चक्रवर्तीने अट्ठम तप कर गंगादेवीकी साधना की।
"उपचारः समर्थानां सद्यो भवति सिद्धये ।"
[समर्थ पुरुपोंका उपचार तत्कालही सिद्धि देनेवाला होता है।] गंगादेवान प्रसन्न होकर दो रत्नमय सिंहासन और एकहजार पाठ रत्नमय कुंम भरतको दिए । रुपलावण्यसे कामदेव. को भी किंकरकं समान बनानेवाले भरत राजाको देखकर गंगा. देवी क्षुब्ध हुई। उसने सारे शरीरपर बदन (मुख) रूपी चंद्रका अनुसरण करनेवाल मनोहर तारागण हों ऐसे मोतियोंके याभूपण धारण किए थे; कलेके अंदरकी त्वचा (छाल ) के समान वस्त्र पहनथे, वे ऐसे मालूम होते थे मानों उसका जलप्रवाह वस्त्र के रूप में बदल गया है; रोमांचरूपी कंचुकी (चोली) से उसके