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१२८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पव १. सग २.
स्वभावसेही सरल मनवाली प्रियदर्शना बोली, "इसका कारण तुम्हारे मित्र जाने या सदा उनके दूसरे दिलके समान तुम जानो। व्यवसायी महत्पुरुपोंके एकांतसूचितकार्य कौन जान सकता है ? और जो जानता है वह घर क्यों कहेगा ?" (६६-६७ )
__अशोकदत्तने कहा, " तुम्हारे पति उसके साथ एकांतमें मिलते हैं, इसका अभिप्राय मैं जानता हूँ; परंतु वह बताया कैसे जा सकता है ?"६८)
प्रियदर्शनाने पूछा, "वताइए, क्या अभिप्राय है ?"
अशोकदत्त बोला, " हे सुभ्र ! नो अभिप्राय मेरा तुम्हारे साथ है, वही अभिप्राय उसका उसके साथ है।" (६)
इस तरह अशोकदत्तन कहा तो भी उसका मतलब वह नहीं समझी और उस सरल मनवाली प्रियदर्शनाने पूछा,"मुझ से तुम्हें क्या काम है "
उसने कहा, "हे सुभ्र! तुम्हारे पति के सिवा दूसरे किस रसन्न और सचेतन पुरुषको तुमसे काम न होगा ?"(७०-७१)
अशोकदत्तकी इच्छाको सूचित करनेवला उसका बचन प्रियदर्शनाके कानमें सूईकी तरह चुभा । वह नाराज हुई और सर मुका कर बोली," हे नराधम !हे निर्लज्ज ! तूने ऐसी बात कैसे सोची ? अगर सोची तो उसे जवानपर क्यों लाया ? मुर्ख ! तेरे इस दुःसाहसको धिक्कार है । और हे दुष्ट ! मेरे महात्मा पतिको तू अपने समान होनेकी संभावना करता है, यह मित्रके बहाने तू शत्रुका काम कर रहा है । तुझे धिक्कार