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प्रथम भव-धनसेठ
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कमन और केलेके पत्तोंके पंखे बना बना कर हवा करने और अपने शरीरका पसीना सुखाने लगे। (८०-८८) . .
वर्षा ऋतु फिर गरमीके मौसमकी तरहही मुसाफिरोंकी गतिको रोकनेवाली मेघोंके चिह्नोंवाली वर्षा ऋतु (बारिश का मौसम) आई । यक्षकी तरह धनुष धारण किए और जलधारा रूपी बाण वरसाते आकाशमें मेघ आ चढ़ा। साथके सभी लोगोंने भयभीत नजरसे उसको देखा। बालक अधजली लकड़ी लेकर जैसे धुमाते और डराते हैं वैसेही,मेघ विजली चमकाकर साथके लोगोंको भयभीत करने लगा। आकाश तक गए (बहुत ऊँचे ऊँचे उछलते) हुए जलके पूरने मुसाफिरोंके दिलोंकी तरह ही नदियोंके किनारोंको तोड़ डाला। बादलोंके पानीने जमीनके ऊँचे और नीचे सभी भागोंको समान बना दिया। ठीकही कहा है:___"जड़ानामुदये हंत विवेकः कीदृशो भवेत् ।" - [१. जड़ (मूर्ख) लोगोंका उदय होने पर भी, उनकी तरकी होने पर भी, उनमें विवेक कैसे आ सकता है ? २. जल जब बहुत बढ़ता है तब उसमें विवेक नहीं रहता।] - जल, काँटों और कीचड़के कारण मार्ग ‘दुर्गम हो गया था, इसलिए उसपर. एक कोस चलना भी सौ योजन चलनेके समान. मालूम होता था। मुसाफिर घुटने तक चढ़े हुए पानीमें . इस तरह धीरे धीरे चल रहे थे, मानों वे अभीही कैदसे छूटकर