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श्री अजितनाथ चरित्र
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हो गया। इसी तरह धर्म,अर्थ व कामके योग्य बने हुए तुम नष्ट हो गए।हे पुत्रो !कृपण धनाध्यके घर आए हुए याचकों की तरह मेरे घर आकर तुम अकृतार्थ अवस्थामेंही यहाँसे चले गए। यह कितने दुःखकी बात है ? हे पुत्रो! उद्यानादि बिना चंद्रिकाकी तरह, श्राज चक्रादि रत्न और नवनिधियों तुम्हारे बिना मेरे किस कामके हैं ? प्राणप्रिय पुत्रों के विना यह छह खंड भरत क्षेत्रका राज्य मेरे लिए व्यर्थ है।” (१८३-२०२)
इस तरह विलाप करते हुए सगर राजाको समझानेके लिए उस ब्राह्मण श्रावकने अमृत के समान मधुर वाणीमें फिरसे कहा, "हे राजा! तुम्हारे वंशने पृथ्वीकी रक्षाकी तरह ज्ञान भी अधिः कारमें पाया है (यानी ज्ञान भी विरासतमें मिला है।) इसलिए दूसरा कोई तुमको वोध दे, यह व्यर्थकी बात है। जगतकी मोहनिद्रा नष्ट कराने के लिए सूर्य के समान अजितनाथ स्वामी जिस. के भाई हों उसे दूसरेसे उपदेश मिले,यह बात क्या लज्जाजनक नहीं है ? जब दूसरे यह जानने हैं कि यह संसार असार है तब तुमेको तो यह बात अवश्य मालूम होनी ही चाहिए क्योंकि तुम तो जन्महीसे सर्वज्ञके सेवक हो। हे राजा! पिता,माता,जाया, पुत्र और मित्र ये सब संसारमें सपने के समान हैं। जो सबेरे दिखता है वह मध्याह्नमें नहीं दिखता और जो मध्याहमें दिखता है वह रातमें नहीं दिखाई देता। इस तरह इस संसारमें सभी पदार्थ अनित्य हैं। तुम स्वयही तत्त्ववेत्ता हो, इसलिए धीरज धरो। कारण, सूर्य दुनियाको प्रकाशित करता है, परंतु सूरजको प्रकाशित करनेवाला कोई नहीं होता।" (२०३-२०६) . लवण समुद्र जैसे मणियों और लवणसे व्याप्त होता है।