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७५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
पक्षकी मध्यरात्रि जैसे अंधकार और प्रकाशसे व्याप्त होती है; हिमाचल पर्वत जैसे दिव्य औषधियों और हिमसे व्याप्त होता है वैसे उस ब्राह्मणके उपदेशको और पुत्रोंकी मृत्युके समाचारको सुनकर सगर राजा उपदेश और मोहसे व्याप्त हो गया। उस राजाके हृदयमें जैसा स्वाभाविक महान धैर्य था वैसाही मोह पुत्रों की मृत्युके समाचारसे आया था। एक म्यानमें दो तलवारोंकी तरह और एक खंभेमें दो हाथियोंकी तरह राजाके दिलमें बोध और मोह एक साथ उत्पन्न हुए। तब राजाको समझानेके लिए सुबुद्धि नामका बुद्धिमान मुख्य प्रधान अमृतक जैसी वाणीमें बोला, "शायद समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे, शायद पवंतसमूह कपित हो,शायद पृथ्वी चपल हो उठे, शायद वज जर्जर हो जाए,मगर अापके समान महात्मा महान दुःखोंके आने पर भी, जरासे भी नहीं घबराते। इस संसारमें क्षणभर पहले दिखाई देनेवाले और क्षणभरके बाद नष्ट होनेवाले सर्व कुटुंया. दिको जानकर विवेको पुरुष उनमें मोह.नहीं करते हैं। इसके संबंधमें एक कथा कहता हूँ। आप ध्यान देकर सुनिए।
(२१८-२१६) . इस जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रके किसी नगरमें एक राजा था। वह जैनधर्मरूपी सरोवर में हसके समान था, सदाचाररूपी मार्गका मुसाफिर था, प्रजारूपी मयूरोंके लिए मेघ था, मर्यादाका पालन करनेमें सागर था, सभी तरहके व्यसनरूपी तृपके लिए अग्नि था, दयारूपी वेलके लिए आश्रयदाता वृक्ष था, कीर्ति। रूपी नदीके उद्गमके लिए पर्वतके समान था और शीलरूपी. रनोंका रोहणाचल पर्वत था। वह एक बार सुखसे अपनी सभा