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भरत-बाहुबलीका वृत्तांत
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उन दोनों ऋषभ कुमारोंको, युद्धोत्सवके लिए आपसमें आमंत्रण दिया । रातको बाहुबलीने सभी राजाओंकी सलाहसे, अपने सिंहके समान बलवान पुत्र सिंहरथको सेनापति बनाया, और मस्त हाथीकी तरह उसके मस्तकपर मानों प्रकाशमान प्रताप हो ऐसा देदीप्यमान सोनेका एक रणपट्ट आरोपण किया। वह राजाको प्रणाम कर, रणका उपदेश पा, मानों पृथ्वी मिली हो ऐसे खुश खुश अपने डेरे पर गया। महाराज बाहुबलीने दूसरे राजाओंको भी युद्धके लिए आज्ञा दे विदा किया। वे खुदही लड़ाईकी इच्छा रखते थे तो भी, उन्होंने स्वामीकी आज्ञाको सत्काररूप माना । (२६६-३०४)
उस तरफ भरत महाराजने भी रातहीको राजकुमारों, राजाओं और सामंतोंके मतसे श्रेष्ठ आचार्यकी तरह सुषेणको रणदीक्षा दी, यानी सेनापति बनाया। सिद्धि-मंत्रकी तरह स्वामीकी आज्ञा स्वीकार कर चकवेकी तरह सवेरेकी राह देखता हुआ सुषेण अपने डेरेपर गया। कुमारोंको, मुकुटधारी राजाओंको और सभी सामंतोंको बुलाकर भरत राजाने आज्ञा दी,"शूरवीरो! मेरे छोटे भाईके साथ होनेवाली लड़ाईमें, सावधानीके साथ मेरीमानते होवैसीही सुषेण सेनापतिकी भी आज्ञा मानना। हे पराक्रमी वीरो! जैसे महावत हाथियोंको वशमें करते हैं वैसे. ही तुमने अनेक पराक्रमी और दुर्मद राजाओंको वशमें किया है और वैताव्यपर्वतको लांघकर, जैसे देव असुरोंको जीतते हैं ऐसेही, दुर्जय किरातोंको तुमने अपने पराक्रमसे अच्छी तरह हराया है। मगर उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो तक्षशिलाके राजा बाहुबलीके प्यादेकी भी समानता कर सकता। बाहुबली