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३६] त्रिषष्टि शलाका पुन्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५.
में लगनेवाले, दूसरोंसे अमेव मानों उसीके (बाहुवलीके) अंश हों ऐसे राजकुमारों, प्रधानों और वीर पुरुषांसे घिरा हुआ बाहु. बली देवताओंसे घिरे हुए इंद्रकं समान मुशोभित हुआ । मानों उसके मनमें बसे हुए हों ऐसे, कई हाथियोंपर सवार हो, कई घोड़ोंपर सवार हो, कई रथों में बैठ और कई पैदल-ऐसे लाखों योद्धा तत्काल एक साथ बाहर निकन्ते । अपने बढ़िया हथियारों सेनेस बलवान वीर पुन्यांसे मानों एक वीरमय पृथ्वी बनाते हों ऐसे, अचल निश्चयवाले बाहुबली रवाना हुए। हरेक चाहता था कि जीत में कोई दूसरा हिस्सेदार न हो इसलिए उसके वीर मुमट अापसमें कहने लगे, मैं अकेला हूँ तो भी सब शत्रुओंको जीत लूँगा।" रोहमाचलके सभी कर मणियाँ होते हैं, ऐसेही, सेनामें नाके वाजे बजानवाले भी अमिमानी वीर थे। चंद्रके समानक्रांतिवाने उसके मांडलिक राजाओंसे छत्रोंसे श्राकाश,श्वेत कमलबाला हो ऐसा दिखाई देने लगा। हरेक पराक्रमी राजाको देखते और उन्हें अपनी भुजाएं मानते वे आगे बढ़े। मागमें चलने हए बाहुबली मानों सेना भारसे पृथ्वीको और तीतके पाजोंक शब्दसि श्राकाशको फोड़ने लगे। उनके देशकी सीमा दूर थी, नो मी । तत्कालही वहाँ था पहुँचे । कारण
"वायुतोऽपि भृशात समरोत्कंठिताः खलु ।"
[युद्धकं लिए उत्सुक (वीर पुरुष ) वायुसे भी अधिक बंगवान होते है। बाहुवलीन जाकर गंगा तटपर ऐसी जगह छावनी डाली जोमरतकी छावनीसे बहुत दूर भी नहीं थी और बहुत पास भी नहीं थी। (२५-२६८)
सरेही (दोनों तरफ ) चारणाभान अतिथिकी तरह