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श्री अजितनाथ चरित्र
[६.३
अधिक (राजके हकदार) हैं। (८३-८६) ___ यह सुनकर सुमित्र ने कहा, "राज्य लेनेके लिए मैं स्वामीके चरण नहीं छोडूंगा। कारण, थोड़े लाभके लिए अधिक लाभ कौन छोड़ता है ? विद्वान राज्यसे, साम्राज्यसे, चक्रवर्तीपनसे और देवपनसे भी अधिक गुरुसेवाको मानते हैं।
(८७-८८) अजितकुमारने कहा, "श्राप, यदि राज्य लेना नहीं चाहते हैं तो, हमारे सुखके लिए, भाव-यति होकर घरहीमें रहिए।"
(८९) उस समय राजाने कहा, "हे बंधो ! तुम आग्रह करनेवाले पुत्र की बात मानो । कारण
........."भावतोऽपि यतिर्यतिः।" [भावसे जो साधु होता है वह भी साधु ही होता है। ] और ये साक्षात तीर्थकर है। इनके तीर्थमें तुम्हारी इच्छा सफल होनेवाली है,इसलिए हे भाई ! तुम इसकी राह देखो और यहीं रहो। जल्दी न करो। एक पुत्रको तीर्थंकर पद और दूसरेको चक्रवर्ती पद पाप्त होते देखकर तुम्हें सभी सुखोंसे अधिक मुख मिलेगा। (३६-६२)
यदापि सुमित्र दीक्षा लेने को बहुत उत्सुक था तथापि उनकी थात उसने स्वीकार की। कारण,
"सता हालंध्या गुर्वाज्ञा मर्यादोदन्वतामिव ।"
[समुद्र-मर्यादाी तरह गुरकी श्राशा, मापुरुषों के लिए भलध्य होती है। अर्थात समुद्र से अपनी मर्यादा नही योदता